Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 184
________________ गाथा-१७७-१७८ ३६१ ३६० प्रवचनसार अनुशीलन आत्मा के प्रदेशों में मन-वचन-काय के योग से जो कंपन होता है; उसे योग बंध कहते हैं। उसके निमित्त से जो कार्माण वर्गणाओं के स्कंध आते हैं और बंधते हैं; वह ईर्यापथ आस्रव है और प्रकृति-प्रदेश बंध है। मोह-राग-द्वेष के जिसप्रकार के भाव रहते हैं, उनके अनुसार ही स्थिति और अनुभाग बंध होता है। पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं का भाव एक-एक पद्य में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - (सवैया इकतीसा) पुग्गलवर्गनानि को सुबंध जे सपर्स गुन गुन के सुभेद चीकनैं सुरूखे भाव सौं। जीव को सुबंध कह्यौ वीतराग देव जू नैं राग द्वेष और मोह भाव के उपाव सौं ।। परसपर जीव कर्म को सुबंध परिनाम दोऊ को निमित्त पाइ हौइ उरझाव सौं। पुग्गल वरगना को बंध जीव को सुबंध जीव-कर्मबंध औसौकह्यौतीनि दावसौं ॥१३८।। वीतरागी जिनेन्द्रदेव ने कहा है कि पुद्गल वर्गणाओं का बंध उनके स्पर्श गुण के भेद स्निग्धता-रूक्षता के शक्त्यंश रूप भाव के कारण होता है तथा जीव को जो भावबंध होता है, वह उसके मोह-राग-द्वेषरूप परिणामों के उपाय से होता है तथा जीव और कर्म का परस्पर जो बंध परिणाम है, वह दोनों का ही निमित्त पाकर परस्पर संश्लेष रूप उलझाव से ही होता है। इसप्रकार यहाँ तीन प्रकार का बंध बताया है - १. पुद्गल वर्गणाओं का परस्पर बंध, २. जीव का विभाव परिणामरूप भावबंध तथा ३. जीव और कर्म का परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध सहित एकक्षेत्रावगाह स्वरूप संश्लेषात्मक बन्ध। (सवैया इकतीसा) जीव है सुअसंख्यात प्रदेसी प्रमान लोक जहाँ तनपिण्ड वर्गना सु अनुसरै हैं। मन वचन काय वर्गनानि के सु अवलंब करिकै प्रदेस परिनाम थरहरै हैं।। तिनही सुमाफिक प्रदेसनि विर्षे सुजिन्हि कर्म वर्गना सु आइक प्रवेस करें हैं। बंधै एक राग दोष मोह के सु अनुसार लैक थिति आप रस दैकै खिरि परै हैं ।।१३९।। जीव लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी है। इस लोक में यह संसारी जीव पुद्गल पिण्डरूप वर्गणाओं से निर्मित शरीर का अनुसरण करता है। मन, वचन और काय वर्गणाओं के अवलम्बन से आत्मप्रदेशों का कंपन होता है। उसी के अनुसार आत्मप्रदेशों में कार्माणवर्गणायें प्रवेश करती हैं और मोह-राग-द्वेषानुसार बंधती हैं, स्थिति के अनुसार रहती हैं और काल पाकर रस देकर खिर जाती हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "ज्ञेय दो प्रकार के हैं - चेतन ज्ञेय और अचेतन ज्ञेय । कर्म की पर्याय अचेतन ज्ञेय है, वह चेतनपर्याय को कुछ भी नुकसान नहीं करती। अजीव के द्रव्य-गुण-पर्याय अजीव में हैं और जीव के द्रव्य-गुण-पर्याय जीव में हैं; इसकारण अजीव कर्म की पर्याय जीव का नुकसान नहीं करती - ऐसा पुद्गलबन्ध (द्रव्यबंध) का स्वरूप जानना।' पर पदार्थ के साथ एकत्व का परिणाम अथवा अज्ञानवश मोहराग-द्वेषरूप परिणाम ही भावबन्ध कहलाता है।' जगत के सभी पदार्थ ज्ञेय हैं, उन ज्ञेयों में इष्ट-अनिष्टपना नहीं; फिर भी अज्ञानी जीव ज्ञेयों में दो भेद करके उनमें कुछ को इष्ट तथा कुछ को १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३१४ २. वही, पृष्ठ-३१४

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