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प्रवचनसार अनुशीलन उसके राग-द्वेष में कर्म निमित्त हैं, इसलिए आत्मा का कर्मपुद्गल के साथ संबंध होता है। इसप्रकार कर्म के साथ आत्मा का बंधरूप व्यवहार साबित होता है।
जिसप्रकार अमूर्त ज्ञान का मूर्त ज्ञेय के साथ संबंध होता है, उसी प्रकार अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म के साथ संबंध होता है । "
गाथा १७२ में कहा था कि जो जीव चैतन्य ज्ञाता दृष्टा स्वभाव का आश्रय लेता है, उसे सम्यग्दर्शन होता है और विशेष स्थिरता होने पर मोक्ष होता है।
यहाँ कहते हैं कि जो जीव बाह्य पदार्थों को ज्ञेयरूप से न जानता हुआ उनमें अपनापन करता है, उसका संसार रहता है। जो जीव जाननेदेखने रूप व्यापार नहीं करता और पर-सन्मुख रहता है, उसके राग-द्वेष होते ही हैं और राग-द्वेष होते हैं तो उसमें जड़कर्म निमित्त होता है। ऐसे पर्यायदृष्टि वाले जीव को कर्म के साथ निमित्त नैमित्तिक संबंध रहता ही है। उसका यहाँ ज्ञान कराया है।
जो जीव स्व की ओर बढ़ता है, उसे पुराने कर्मों का निमित्त नहीं होता तथा नये कर्म नहीं बँधते; किन्तु जो जीव पर्यायबुद्धि करके रागद्वेष करता है, उसे पुराने कर्मों का निमित्त होता है और नया कर्म बंधता है तथा वह जितने प्रमाण में राग-द्वेष करता है, उसे उतने प्रमाण में कर्म बंधा है।
स्त्री-पुत्र बंध के कारण हैं - यह उपचार का कथन है। आत्मा का तो ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के साथ भी संबंध नहीं; क्योंकि उनका आत्मा में अत्यन्त अभाव है। ऐसा होने पर भी जो जीव ममता करता है, पर-पदार्थों में ठीक-अठीक बुद्धि करके स्वभाव से चूककर पर में अटकता है, वह जीव स्वयं की पर्याय में राग-द्वेषादि रूप भावबंध करता है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- २८४
२. वही, पृष्ठ- २८५
गाथा - १७३-१७४
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वह भावबंध निश्चय से है और उस भावबंध में स्त्री-पुत्रादि निमित् हैं; इसकारण रागी जीव को स्त्री- पुत्र का बंधन होता है - ऐसा व्यवहार से कहा जाता है।
अशुद्धता स्वयं की पर्याय में स्वयं से हुई है और हो रही है, उसमें जड़कर्म निमित्त मात्र हैं; क्योंकि स्वयं के लक्ष्य से अशुद्धता नहीं होती; अपितु जड़कर्मों के लक्ष्य से अशुद्धता होती है। पर्याय में बिलकुल अशुद्धता नहीं - ऐसा मानना भी मिथ्या है और मलिनता होने पर भी मलिनता का निमित्त ही न माने तो भी व्यवहार सच्चा नहीं है। मलिन पर्याय भी एक ज्ञेय हैं। मलिन पर्याय और कर्म का निमित्त नैमित्तिक संबंध है ऐसा यहाँ ज्ञान कराया है।
जो जीव भावबंध तथा स्वयं की पर्याय का सच्चा ज्ञान नहीं करता, वह भावबंध से रहित अपने निजस्वरूप को नहीं जान सकता। इसलिए भावबंध का द्रव्यबंध के साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध बताकर कहा है कि वे दोनों जीव का स्वरूप नहीं। जीव तो अबंधस्वभावी है - ऐसा यथार्थ ज्ञान करना ही प्रयोजनवान है।"
उक्त सम्पूर्ण विवेचन का सार यह है कि बंध के संबंध में शास्त्रों का कथन यह है कि दो द्रव्यों के बीच बंध का कारण स्निग्धता और रूक्षता है, जो स्पर्श गुणरूप होने से एकमात्र पुद्गलद्रव्य में पाई जाती हैं; अतः विविध पुद्गल परमाणुओं का स्कंधरूप बंध तो संभव है; पर अरूपी होने से आत्मा में स्पर्श गुण का अभाव है; इसकारण उसमें स्निग्धता और रूक्षता भी संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में आत्मा के साथ पौद्गलिक कर्मों का बंध कैसे हो सकता है ?
उक्त शंका का समाधान करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि जिसप्रकार अमूर्त आत्मा मूर्त पुद्गल को देखता - जानता है; उसी प्रकार वह अमूर्त आत्मा मूर्त पौद्गलिक कर्मों से बंधता भी है।
३. वही, पृष्ठ- २८९
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- २८८
२. वही, पृष्ठ- २८९