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गाथा-१७३-१७४
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प्रवचनसार अनुशीलन जैसे ग्वालों के बालक सच्चे या मिट्टी के बने हुए बैलों को देखकरजानकर राग के जोर से उनमें अपनापन स्थापित करते हैं। जब उनका कोई निकटवर्ती बैलों को छोड़कर ले जाता है, मारता है; तब वे बहुत अधीर हो जाते हैं; रोते-धोते हैं और शोर मचाते हैं।
हे भेदज्ञानियो ! उक्त स्थिति में विचार करके देखो कि वे बालक बैलों से स्वयं की ममता की डोर से ही बंधे हैं। उसीप्रकार पुद्गलकर्म तो मात्र बाह्य निमित्त है; निश्चयनय से तो जीव अशुद्धोपयोग की मरोर से ही बधा है।
पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं का भाव एक-एक पद्य में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
(कवित्त छन्द) पुग्गलखंध वा सु परमानू विषै गुन सु वरनादिक चार । पुनि चीकनैं परसपर रूखे अंसनि सौं सुबंध निरधार ।। पुग्गल के सुचीकनैं रूखे गुन करि रहित आतमा सार । पूछत सिष्य वरगना पुद्गल बाँधै जीव कौन परकार ।।१३४।। पुद्गल स्कन्ध हो अथवा परमाणु हो, उसमें वर्णादिक चार गुण पाये जाते हैं तथा उनमें स्पर्श गुण के स्निग्धता-रूक्षता अंशों से परस्पर बंध का निर्धारण होता है । जिनसे बंध होता है - ऐसे स्निग्धतारूक्षता रूप शक्त्यंश पुद्गल के ही होते हैं और आत्मा इन गुणों से रहित होता है। ___ जब ऐसा है तो फिर शिष्य पूछता है कि आत्मा में स्निग्धतारूक्षता है ही नहीं तो फिर पुद्गल कार्माणवर्गणा को जीव कैसे बाँध सकता है?
(छप्पय ) जीव अमूरतिवंत गुन सुवरनादि रहित है। वरनादिक गुन घटपटादि पुद्गल सुसहित है।। गुन घट पटनि विर्षे सुपेत पीतादि बखानैं । विकलपता करिकै तिन्हें सु देखें अरु जानैं ।।
परकार सु इहि पुद्गल दरव बंधै जीव सौं जाइकैं।
तुम सिष्य सुनौ उत्तर सु यह कहै सुगुरु समुझाइ कैं।।१३५।। जीव अमूर्तिक है तथा वर्णादिक गुणों से रहित है। घट-पटादिक पुद्गल ही वर्णादिक गुण सहित हैं। यह वस्त्र सफेद या पीला - इसप्रकार वर्णादिक गुण घट-पटरूप पुद्गल स्कन्धों में कहे जाते हैं और अमूर्तिक आत्मा उन श्वेत-पीतादिक को जानता-देखता है। यहाँ गुरु शिष्य को समझाकर कह रहे हैं कि हे शिष्य तुम अब अपना उत्तर सुनो । जिसप्रकार अमूर्तिक आत्मा वर्णादि गुण सम्पन्न पुद्गल को जानता है; उसीप्रकार अमूर्तिक आत्मा वर्णादि गुणवाली कार्माणवर्गणाओं से बंध जाता है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"एक बालक के पास मिट्टी का बैल है तथा एक वृद्ध के पास सच्चा बैल है। वह मिट्टी का बैल बालक से जुदा है और सच्चा बैल वृद्ध से जुदा है। उनके जुदा होने पर भी बालक मिट्टी के बैल को जानता है तथा वृद्ध भी सच्चे बैल को जानता है।
बैल को जानते हुए बालक तथा वृद्ध दोनों बैलों से जुदे हैं। बैलों के साथ उनका कोई संबंध नहीं है। जैसे बालक बैल को जानता-देखता हआ ज्ञान-दर्शन उपयोग स्वरूप है। वैसे ही वृद्ध भी बैल को जानतादेखता हुआ ज्ञान-दर्शन उपयोग स्वरूप है।
ज्ञान आत्मा का है और उसमें बैल निमित्त है। ज्ञान और बैल अलग-अलग होने पर भी उनमें ज्ञान-ज्ञेय का संबंध, बैल के साथ के संबंधरूप व्यवहार का साधक जरूर है।
इसी दृष्टान्त से आत्मा अरूपी है, स्पर्श शून्य है; इसलिए आत्मा का स्पर्शादि वाले कर्मपदगल के साथ संबंध नहीं है। फिर भी जो जीव स्वयं के ज्ञाता-दृष्टास्वभाव से चूककर मिथ्यात्व, राग-द्वेष करता है;
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२८३-२८४ २. वही, पृष्ठ-२८४