Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 173
________________ ३३८ प्रवचनसार अनुशीलन रूप बंध योग्य स्पर्शविशेष के कारण परस्पर बंधते हैं, बंधन को प्राप्त होते हैं - यह बात तो समझ में आती है; किन्तु आत्मा और पुद्गल परस्पर बंधन को प्राप्त होते हैं - यह कैसे माना जा सकता है ? यद्यपि मूर्तकर्मपुद्गल में रूपादि गुण पाये जाते हैं; इसकारण उनमें यथायोग्य स्निग्ध-रूक्षत्व स्पर्शविशेष होते हैं; तथापि अमूर्त आत्मा में रूपादि गुणों का अभाव होने के कारण आत्मा में यथोचित स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष असंभव होने से एक अंग की विकलता है। अतः जीव और पौद्गलिक कर्मों का परस्पर बंध कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि परस्पर बंधनेवाले दोनों द्रव्यों में यथोचित स्निग्धरूक्षत्व विशेष स्पर्श गुण होना चाहिए, तभी बंध हो सकता है। आत्मा में स्पर्श गुण का अभाव है - इसकारण एक अंग की विकलता है; अतः आत्मा का कर्मों से बंधना संभव नहीं है। यह शिष्य की शंका है; जिसका समाधान आचार्यदेव इसप्रकार करते हैं - जिसप्रकार रूपादि गुणों से रहित जीव, रूपी द्रव्यों को तथा उनके गुणों को देखता - जानता है; उसीप्रकार रूपादि रहित जीव, कर्म पुद्गलों के साथ बंधता है। यदि ऐसा न हो तो देखने-जानने के संबंध में भी यह प्रश्न अनिवार्य हो जाता है कि अमूर्त, मूर्त को कैसे जान सकता है ? यह बात अत्यन्त दुर्घट है; इसलिए इसे दान्त रूप बनाया है - यह बात भी नहीं है । यह बात आबाल-गोपाल सभी की समझ में आ जाय, इसलिए इसे दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। जिसप्रकार बालक अथवा वृद्ध या ग्वाले का, उससे पृथक् रहनेवाले मिट्टी के बैल अथवा वास्तविक बैल को देखने-जानने पर भी बैल के साथ कोई संबंध नहीं है; तथापि विषयरूप (ज्ञेयरूप) रहनेवाला बैल जिसका निमित्त है; ऐसे उपयोगारूढ वृषभाकार ज्ञान-दर्शन के साथ का संबंध बैल के साथ के संबंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है। इसीप्रकार अरूपित्व के कारण आत्मा स्पर्श शून्य है; इसलिए उसका गाथा - १७३-१७४ कर्म-पुद्गलों के साथ संबंध नहीं हैं; तथापि एकावगाहरूप से रहनेवाले कर्मपुद्गल जिसके निमित्त हैं- ऐसे उपयोगारूढ राग-द्वेषादि भावों के साथ का संबंध कर्मपुद्गलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है। " 'बाल' शब्द के बालक, मूर्ख, अनजान आदि अनेक अर्थ होते हैं और गोपाल के ग्वाला, वृद्ध, भगवान आदि अनेक अर्थ होते हैं । इसप्रकार आबाल गोपाल शब्द के अर्थ भी बालक से वृद्ध तक अज्ञानी से भगवान तक और बालक और ग्वाले जैसे स्थूल बुद्धिवाले लोग हो सकता है। ग्वाले को लोक में अत्यन्त स्थूल बुद्धिवाला माना जाता है; इसकारण यहाँ यह कहा गया है कि बालक और ग्वाले जैसे स्थूलबुद्धि वालों की भी समझ में आ जावे, इसलिए दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। इसीप्रकार बालक से वृद्ध तक अर्थात् सभी लोग और अजान से भगवान के समान बुद्धिमान तक के सभी जीव सहजभाव से समझ सकेंइसकारण दृष्टान्त से समझाया गया है। आचार्य जयसेन इन गाथाओं के भाव को नयविभाग से मुक्त जीव, भेदज्ञान रहित अज्ञानी जीव और भेदज्ञानी जीव को आधार बनाकर समझाते हैं; जो मूलत: पठनीय है। उक्त गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी इसप्रकार छन्दोबद्ध करते हैं - ( मनहरण ) मूरतीक रूप आदि गुन को धरैया यह, पुग्गल दरवसों फरस आदिवान सों। आपस में बंधे नाना भांति परमानू खंध, सो तो हम जानी सरधानी परमान सों ।। तासों विपरीत जो अमूरत चिदातमा सो, केसे बँधे पुग्गल दरव मूर्तिमान सों। यह तौ अचंभौ मोहि ऐसो प्रतिभासै वृन्द, ३३९ अमिलमिलाप ज्यों "नितंब जुरे कान सों" ।। ६८ ।।

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