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प्रवचनसार अनुशीलन विशेष से आलिंगित है और न सामान्य द्रव्य से आलिंगित है; वह तो शुद्धद्रव्य और शुद्धपर्यायरूप है।
भगवान आत्मा में अनंत गुण हैं, वह अनंत गुणों का अखण्ड पिण्ड है; वह मात्र अर्थावबोध अर्थात् ज्ञानगुण मात्र नहीं है। मात्र ज्ञानगुण को लेना गुणविशेष को लेना है। यहाँ अलिंगग्रहण से आत्मा में गुणों का निषेध नहीं, गुणविशेष का निषेध है।
इसीप्रकार पर्याय के संदर्भ में समझना चाहिए। अलिंगग्रहण भगवान आत्मा पर्यायों के अखण्ड प्रवाहरूप तो है, पर एक-एक पर्याय रूप नहीं है।
इसप्रकार दृष्टि का विषयभूत आत्मा अनंत गुणों का अखण्ड पिण्ड तो है, पर विशेषगुणरूप नहीं है, गुणभेदरूप नहीं है; अनादि-अनंत अनंत पर्यायों के अखण्ड प्रवाहरूप तो है, पर क्षणवर्ती विशेष पर्यायरूप नहीं है; पर्याय भेदरूप नहीं है।
इसीप्रकार यह भगवान आत्मा अनादि-अनंत, असंख्यातप्रदेशी, अनंत-गुणात्मक द्रव्यरूप तो है, पर द्रव्यसंबंधी विकल्परूप नहीं है; निर्विकल्प शुद्धपर्याय रूप है।
इसप्रकार यह आत्मा द्रव्य-गुण-पर्यायमय होकर भी इनके भेदरूप नहीं है, विकल्परूप नहीं है।
यहाँ द्रव्य, गुण और पर्याय को निरपेक्ष सिद्ध करना है। उन्हें अपने अस्तित्व के लिए दूसरे की अपेक्षा नहीं है। वे एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते - इसका और क्या अर्थ हो सकता है?
उक्त २० बोलों के माध्यम से भगवान आत्मा के अलिंगग्रहण स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। ये अरसादि और अलिंगग्रहण भाव भगवान आत्मायरिया होत्सवामाखुभाकाहारसव ही क्यास्का के स्त्रक्षाव क्लेम्निाचममी कमलविकलैयारोस्लभुश्न चक्तिस्वासानंद, बदचों के स्पष्टिकहोनेखान-हीभमकीको मोझावमानसमरूपयपिटकोलाहौन के संयोग का | नहीं, वियोग का दिन है। -पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ
प्रवचनसार गाथा १७३-१७४ विगत १७२वीं गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है; अत: अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अरूपी आत्मा का रूपी पौद्गलिक कर्मों के साथ बंध कैसे हो सकता है?
आगामी १७३-१७४वीं गाथाओं में उक्त प्रश्न को उपस्थित कर उसका समाधान प्रस्तुत किया गया है। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फासेहिं अण्णमण्णेहिं । तव्विवरीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्मं ।।१७३।। रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ।।१७४ ।।
(हरिगीत) मूर्त पुद्गल बंधे नित स्पर्श गुण के योग से। अमूर्त आतम मूर्त पुद्गल कर्म बाँधे किसतरह ।।१७३।। जिसतरह रूपादि विरहित जीव जाने मूर्त को।
बस उसतरह ही जीव बाँधे मूर्त पुद्गलकर्म को ।।१७४।। मूर्त पुद्गल तो रूपादि गुणों से युक्त होने से स्पर्श गुण के द्वारा परस्पर बंधन को प्राप्त होते हैं; किन्तु उससे विपरीत अमूर्त आत्मा पौद्गलिक कर्मों को किसप्रकार बांधता है ?
जिसप्रकार रूपादि गुणों से रहित जीव रूपी द्रव्यों और उनके गुणों को देखता-जानता है; उसीप्रकार अरूपी का रूपी के साथ बंध जानो। ___ आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“रूपादि गुणों से युक्त होने से मूर्त पुद्गल द्रव्य तो स्निग्ध-रूक्षत्व