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गाथा-१७२
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प्रवचनसार अनुशीलन लक्षण संबंध है। आत्मा की पहिचान उपयोग लक्षण से ही होती है।
७-९ - सातवें बोल में यह कहा है कि उपयोग लक्षण लिंग द्वारा ज्ञेयपदार्थों को ग्रहण नहीं करता अर्थात् उनका आलम्बन नहीं लेता; इसलिए आत्मा अलिंगग्रहण है। तात्पर्य यह है कि आत्मा के बाह्य पदार्थों के आलम्बनवाला ज्ञान नहीं है।
आठवें बोल में यह कहा गया है कि आत्मा उपयोग लक्षण लिंग को बाहर से नहीं लाता और नौवें बोल में यह कहा है कि आत्मा के उपयोग लक्षण लिंग का पर के द्वारा हरण नहीं हो सकता।
इसप्रकार भगवान आत्मा के उपयोगलक्षण को न तो ज्ञेयों के आलंबन की जरूरत है, न उसे बाहर से लाने की जरूरत है और न उसके अपहरण हो जाने के भय से आक्रान्त होने की आवश्यकता है।
१०. 'भगवान आत्मा शुद्धोपयोगस्वभावी हैं' - इस अर्थ के सूचक दशवें बोल में यह कहा गया है कि जिसप्रकार सूर्य में मलिनता नहीं है; उसीप्रकार भगवान आत्मा के उपयोग लक्षण में भी मलिनता नहीं है, विकार नहीं है। चन्द्रमा में कलंक है, मलिनता है, पर सूर्य में कलंक नहीं है, मलिनता नहीं है। यही कारण है कि यहाँ चन्द्रमा का उदाहरण न देकर सूर्य का उदाहरण दिया गया है।
११. आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त है' - ऐसे भाव को व्यक्त करनेवाले ग्यारहवें बोल में कहा गया है कि जिसके उपयोग लक्षण लिंग द्वारा पौद्गलिक कर्मों का ग्रहण नहीं है, बंध नहीं है; वह आत्मा अलिंगग्रहण है।
उपयोग संबंधी इस १०वें बोल में यह कहा गया है कि भगवान आत्मा में मलिनता नहीं है, शुभाशुभरूप भावकर्म नहीं है और ११वें बोल में यह कहा गया है कि वह द्रव्यकर्मों से असंयुक्त है। तात्पर्य यह है कि वह आत्मा शुभाशुभभावरूप भावकर्मों और ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों से रहित शुद्धोपयोगस्वभावी निर्लेप तत्त्व है। ___उपयोगसंबंधी या लक्ष्य-लक्षण संबंधी उक्त ७वें से ११वें तक के पाँच बोलों को लक्ष्य-लक्षण की मुख्यता से इसप्रकार समझ सकते हैं
(१) उपयोग नामक लक्षण अपने आत्मा रूप लक्ष्य का आलम्बन
लेता है; अत: उसे पर-पदार्थों के आलम्बन की क्या आवश्यकता है ?
(२) उपयोग लक्षण अपने लक्ष्य आत्मा में से ही आता है; अत: उसे पर-पदार्थों में से आने की क्या आवश्यकता है?
(३) उपयोग लक्षण अपने लक्ष्य आत्मा के आश्रय में ही रहता है; इसलिए उसका अपहरण कौन कर सकता है ?
(४) उपयोग लक्षण अपने लक्ष्य आत्मा में ही एकाग्र होता है, परपदार्थों में एकाग्र नहीं होता; इसकारण उसमें मलिनता भी क्यों हो?
(५) उपयोग लक्षण अपने लक्ष्य आत्मा को ही ग्रहण करता है, परपदार्थों को ग्रहण नहीं करता; अत: वह पर से संयुक्त भी क्यों हो? ___तात्पर्य यह है कि उपयोग नामक लक्षण न तो पर का आलम्बन लेता है, न पर में से आता है, न पर के द्वारा अपहृत होता है; न वह मलिन होता है और न वह पर से संयुक्त ही होता है।
१२-१३ - 'आत्मा विषयों का उपभोक्ता नहीं है' - इस अर्थ में प्राप्त करानेवाले १२बोल में यह कहा गया है कि जिसके लिंग अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण अर्थात् उपभोग नहीं है; वह आत्मा अलिंगग्रहण है।
'आत्मा माता के रज और पिता के वीर्य के अनुसार होनेवाला नहीं हैं' - इस अर्थ की प्राप्ति करानेवाले १३वें बोल में यह कहा गया है कि जिस आत्मा के लिंग अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षणों के द्वारा ग्रहण अर्थात् जीवत्व धारण किये रहना नहीं है; वह आत्मा अलिंगग्रहण है।
उपभोगसंबंधी उक्त दोनों बोलों का निष्कर्ष यह है कि आत्मा पंचेन्द्रिय के भोगों का भोक्ता नहीं है और स्पर्शन इन्द्रिय के भोग से मिले हुए रज
और वीर्य की रचना भी नहीं है; क्योंकि रज और वीर्य के सम्मिश्रण का फल तो देह की रचना है और आत्मा तो देह से पूर्णतः भिन्न ही है।
१४-१५ - मेहनाकार और अमेहनाकार संबंधी इन बोलों में यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा न तो लौकिक साधनमात्र है और न पाखण्डियों के प्रसिद्ध साधनरूप आकारवाला है, लोकव्याप्तिवाला है।
लिंग अर्थात् मेहनाकार का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण