Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 168
________________ ३२८ गाथा-१७२ ३२९ प्रवचनसार अनुशीलन जिसप्रकार १८वें बोल में कहा था कि द्रव्य अभेद है, उसीसमय ज्ञानादि गुणभेद है तो सही; किन्तु अभेदस्वभाव में ज्ञानादि गुणभेद का अभाव है; अत: द्रव्य ज्ञान को स्पर्श नहीं करता। १९वें बोल में कहा था कि गुण सामान्य है, उसीसमय ज्ञान की निर्मल पर्याय है; परन्तु सामान्य शक्तिस्वरूप द्रव्य में ज्ञान की निर्मलपर्याय का अभाव है अर्थात् सामान्य में विशेष का अभाव है; अत: द्रव्य पर्याय को स्पर्श नहीं करता। २०वें बोल में इसप्रकार कहते हैं कि जब शुद्धपर्याय है; उसीसमय त्रिकाली ध्रुव द्रव्य है; परन्तु ज्ञान की शुद्धपर्याय में द्रव्यसामान्य का अभाव है अर्थात् विशेष में सामान्य का अभाव है; अतः शुद्धपर्याय सामान्यद्रव्य को स्पर्श नहीं करती। शुद्धपर्याय में सामान्य का अभाव है; क्योंकि विशेष में सामान्य का अभाव नहीं हो तो विशेष और सामान्य एक हो जायें; वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। विशेष विशेष से ही है, सामान्य से नहीं है। यहाँ विशेष निरपेक्ष है, यह सिद्ध करना है। समय-समय की पर्याय सत् अहेतुक है । वह निमित्त की अथवा राग की अपेक्षा नहीं रखती है; किन्तु ज्ञानगुण सामान्य है, उसकी भी अपेक्षा नहीं रहती है। इसप्रकार उसकी निरपेक्षता बतलाई है। जो शुद्धपर्यायरूप परिणमित है, वही आत्मा है, आत्मा स्वयं ही शुद्धपर्याय है। इसप्रकार बतलाकर द्रव्यदृष्टि कराई है। सामान्य तथा विशेष के भेदवाला आत्मा सम्यग्दर्शन का ध्येय नहीं है। शुद्धपर्याय, वही आत्मा है; इसप्रकार कहकर अभेददृष्टि कराई है। इसप्रकार आत्मा त्रिकाली ज्ञान से नहीं स्पर्शित ऐसी शुद्धपर्याय है। आत्मा स्वयं ही शुद्धपर्याय है। आत्मा और शुद्धपर्याय में भेद नहीं है। इसप्रकार तेरे स्वज्ञेय आत्मा को जानना-श्रद्धा करना धर्म है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि यह भगवान आत्मा औदारिक १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२७६ २. पृष्ठ-२७८ ३. वही, पृष्ठ-२७८ आदि शरीर रूप पुद्गलों से तो भिन्न है ही; किन्तु अचेतन आकाश, काल और धर्म व अधर्म - इन अरूपी द्रव्यों से भी पृथक् है; यहाँ तक कि अन्य जीवों से भी भिन्न ही है। __परद्रव्यों से आत्मा की भिन्नता का ज्ञान करानेवाली उक्त गाथा में अरसादि विशेषणों के मध्यम से पुद्गल से; चेतना गुण वाला विशेषण के माध्यम से आकाशादि अमूर्त अजीवद्रव्यों से और स्वयं की चेतना के माध्यम से अन्य जीवों से भिन्नता सिद्ध की गई है। इस प्रवचनसार परमागम में १७२वीं गाथा के रूप में समागत इस गाथा की आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में अलिंगग्रहण पद पर विशेष ध्यान दिया गया है। यद्यपि सामान्यरूप से तो यही कहा गया है कि रूपरसादि चिन्हों के द्वारा ग्राह्य न होने से यह भगवान आत्मा अलिंगग्रहण है; तथापि यह प्रश्न उपस्थित कर कि यदि यही बात है तो फिर अलिंगग्रहण क्यों कहा, अलिंगग्राह्य ही कहना चाहिए था? इसके उत्तर में यह कहा गया है कि विशिष्ट अर्थों की निष्पत्ति के लिए अलिंगग्रहण पद का प्रयोग किया गया है। इसके बाद अलिंगग्रहण पद के २० अर्थ किये गये हैं। 'लिंग' और 'ग्रहण' पदों के विभिन्न अर्थ होने से यह सब संभव हुआ है। अलिंगग्रहण के आरंभ का 'अ' तो सर्वत्र निषेधवाचक ही है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह ज्ञेयाधिकार है और अपना भगवान आत्मा भी एक ज्ञेयपदार्थ है । अरसादि के समान उसका स्वभाव अलिंगग्रहण भी है। जिसप्रकार आत्मा को जानने के लिए उसके ज्ञानस्वभाव को जानना जरूरी है; उसीप्रकार उसके ज्ञेयस्वभाव को भी जानना आवश्यक है। उस भगवान आत्मा का ग्रहण (जानना) कैसे होता है - यह जानना भी आवश्यक है, अनिवार्य है। आत्मा का ग्रहण कैसे होता है' - यह जानने के साथ-साथ कैसे नहीं होता है - यह जानना भी अति आवश्यक ही है। इस अलिंगग्रहण प्रकरण में भगवान आत्मा

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