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प्रवचनसार अनुशीलन गंध तथा आठ प्रकार के स्पर्श भी नहीं हैं। जो अपने ज्ञान-दर्शनस्वरूप में गुप्त है, ज्ञान-दर्शनमय है। निश्चय से जिसके स्वभाव के ग्राहक पौद्गलिक शब्द पर्याय या चिन्ह विशेष नहीं है। सभी संस्थानों से रहित निराकार शुद्धरूप जो जीव का स्वभाव है; हे भाई ! हे भव्यजनों !! तुम उसे जीवद्रव्य जानो।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
__“आत्मा को सर्वप्रथम पुद्गलों से भिन्न किया । पश्चात् अन्य अजीवों से भिन्न किया। अब अन्य जीवों से भिन्न करते हैं। अपना चेतनागुण अपने आत्मा के आश्रय से है, अन्य आत्मा के आश्रय नहीं है। वह स्वयं का चेतना गुण स्वयं को अनंत केवली, सिद्ध, अनंत निगोद इत्यादि अनंत जीवों से भिन्न करता है; क्योंकि स्वयं का चेतना गुण स्वयं का स्वलक्षण है। उसको सदा स्वयं धारण कर रखता है। साधकदशा में धर्म की साधना के लिए चेतना गुण प्रयुक्त होता है।
इस ज्ञेयतत्त्व अधिकार में अलिंगग्रहण कहने का कारण यह है कि आत्मा ज्ञान-दर्शन आदि अनंत गुणों तथा पर्यायों का पिंड है। यह ज्ञेय (आत्मा) पदार्थ इन्द्रियों से कार्य करे, ऐसा उसका स्वभाव नहीं है। इन्द्रिय के अवलम्बन बिना स्वयं से ज्ञान करे, ऐसा उस ज्ञेय का स्वभाव है। आत्मा इन्द्रियों द्वारा ज्ञात हो - ऐसा यह ज्ञेयपदार्थ नहीं है, अन्तर्मुख देखने से ज्ञात हो - ऐसा है।
१. आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञानमय है; ऐसा तू जान ।' २. आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं है; ऐसा तू जान ।
३. आत्मा इन्द्रिय प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है; ऐसा तू जान।
४. आत्मा स्वतत्त्व है, वह परतत्त्व द्वारा नहीं जानता है, परतत्त्व द्वारा
गाथा-१७२
३१९ ज्ञात नहीं होता है, उसीप्रकार परतत्त्व के अनुमान द्वारा भी ज्ञात नहीं होता, परन्तु स्वतत्त्व से ही जानता है और ज्ञात होता है; ऐसा तू जान ।'
सर्वज्ञ देवाधिदेव अरहंत तथा सिद्ध और आचार्य, उपाध्याय, मुनि आदि के आत्मा को जानना हो तो मात्र अनुमान द्वारा ज्ञात हो सके - ऐसा वह आत्मा नहीं है। __ चौथे बोल में कहा है कि अन्य जीव तेरे आत्मा को अथवा पंचपरमेष्ठी के आत्मा को मात्र अनुमान द्वारा जानने का प्रयत्न करें तो वे ज्ञात नहीं होंगे।
अब यहाँ पाँचवें बोल में कहते हैं कि तू केवल अनुमान करनेवाला ही नहीं है। आत्मा मात्र अनुमान करनेवाला हो तो अनुमानरहित प्रत्यक्ष केवलज्ञान प्रगट करने का अवसर ही नहीं आयेगा।
यहाँ यह कहा है कि आत्मा इन्द्रियों से स्व-पर को नहीं जानता है, आत्मा इन्द्रियों द्वारा ज्ञात नहीं होता है, आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है, आत्मा केवल अनुमान ज्ञान से ज्ञात नहीं होता है और आत्मा केवल अनुमान ज्ञान से स्व-पर को नहीं जानता है। इन पाँच लिंगों द्वारा आत्मा ज्ञात नहीं होता; अत: आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है, ऐसे भाव की प्राप्ति होती है। ___ पहले पाँच बोलों में द्रव्य का (आत्मा का) नास्ति से कथन किया है। आत्मा किसी बाह्य चिन्ह से ज्ञात हो, ऐसा नहीं है; इसप्रकार नास्ति से आत्मद्रव्य का कथन किया । छठवें बोल में आत्मद्रव्य की अस्ति से बात कही। अब सातवें बोल से आत्मा के ज्ञानगुण की पर्याय-उपयोग का कथन करते हैं।
यहाँ लिंग का अर्थ उपयोग कहा है। जिसको लिंग द्वारा अर्थात् उपयोग नामक लक्षण द्वारा ग्रहण अर्थात् ज्ञेय पदार्थों का आलम्बन नहीं है, वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा को बाह्य पदार्थों के आलंबनवाला
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२०१ २. वही, पृष्ठ-२११ ४. वही, पृष्ठ-२१८
३. वही, पृष्ठ-२१७ ५. वही, पृष्ठ-२१९
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२२० ३. वही, पृष्ठ-२२६
२. वही, पृष्ठ-२२३ ४. वही, पृष्ठ-२२८-२२९