Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 165
________________ गाथा-१७२ ३२२ प्रवचनसार अनुशीलन पदार्थ लक्ष्य है और उपयोग उसका लक्षण है, जिससे आत्मा पहिचाना जा सकता है। १. सातवें बोल में उपयोग नामक लक्षण, लक्ष्य ऐसे आत्मा का ही आलंबन करता है; अत: उसे परपदार्थों का अवलंबन नहीं है। २. आठवें बोल में उपयोग नामक लक्षण, लक्ष्य ऐसे आत्मा में से आता है। अत: ज्ञान परपदार्थों में से नहीं आता है। ३. नवमें बोल में उपयोग नामक लक्षण, लक्ष्य ऐसे आत्मा का ही आश्रय करता है। अतः ज्ञान को पर के द्वारा हरण नहीं किया जा सकता है। ४. दसवें बोल में उपयोग नामक लक्षण, लक्ष्य ऐसे आत्मा में ही एकाग्र होता है, परपदार्थों में एकाग्र नहीं होता है; अत: उसमें मलिनता नहीं है। ५. ग्यारहवें बोल में उपयोग नामक लक्षण, लक्ष्य ऐसे आत्मा में ही एकाग्र होता है, परन्तु परपदार्थ, कर्म आदि का ग्रहण नहीं करता है, अत: यह असंयुक्त है। इसप्रकार अपना ज्ञान-उपयोग भी ज्ञेय है। वह ज्ञेय पुद्गलकर्म को ग्रहण नहीं करता है; जिससे उपयोग लक्षणयुक्त आत्मा भी पुद्गलकर्म को ग्रहण नहीं करता है - ऐसा तेरा स्वज्ञेय जिसप्रकार है, उसप्रकार तू जान; ऐसा आचार्य भगवान आदेश देते हैं। ज्ञेय जिसप्रकार है, उसीप्रकार यथार्थ जानना-सम्यग्दर्शन है और सम्यग्ज्ञान का कारण है और उससे धर्म और शांति की प्राप्ति होती है। जिसे लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण अर्थात् विषयों का उपभोग नहीं है, सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा विषयों का उपभोक्ता नहीं है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है - यह बारहवाँ बोल है।' लिंग द्वारा अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षण के द्वारा ग्रहण अर्थात् जीवतत्त्व को धारण कर रखना जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२४६ २. वही, पृष्ठ-२४७ ३. वही, पृष्ठ-२४९ इसप्रकार आत्मा शुक्र और आर्तव को अनुविधायी (अनुसार होनेवाला) नहीं है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है - यह तेरहवाँ बोल हैं। ____ पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, श्वासोच्छ्वास और आयु - ये दस प्राण हैं; परन्तु जीव उनसे जीवित नहीं रहता है; क्योंकि वे दसों प्राण जड़ हैं और आत्मा तो शाश्वत चैतन्यप्राणवाला है। जडप्राण का आत्मा में अभाव है; अत: आत्मा जड़प्राण से जीवित नहीं रहता है। इसप्रकार आत्मा माता-पिता के रज और शुक्र का अनुसरण करके होनेवाला नहीं है और उनके द्वारा उत्पन्न नहीं होता है। लिंग का अर्थात् मेहनाकार का (पुरुषादि की इन्द्रिय का आकार) ग्रहण जिसके नहीं है, सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा लौकिकसाधनमात्र नहीं हैं', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है - यह चौदहवाँ बोल है। __जो पुरुष की इन्द्रिय की, स्त्री की इन्द्रिय की, नपुंसक की इन्द्रिय की आकृतियाँ दिखाई देती हैं; वे तो सब पुद्गल की अवस्थाएँ हैं। उन आकृतियों का आत्मा में अभाव है और उस आकार में आत्मा का अभाव है। जिस वस्तु का जिसमें अभाव होता है, उस अभावरूप वस्तु का ग्रहण हो, ऐसा बन ही नहीं सकता। अत: आत्मा इन्द्रिय के आकार का ग्रहण नहीं करता है। __ आत्मा पुरुषादि की इन्द्रिय के आकार को ग्रहण नहीं करता है; अत: आत्मा लौकिक साधनमात्र नहीं है। ___ आचार्य भगवान कहते हैं कि तू जड़ इन्द्रियों का आश्रय छोड़ और चैतन्य ज्ञाता-दृष्टा शुद्ध चिदानन्द स्वरूप है, उसकी श्रद्धा-ज्ञान करके उसमें स्थिरता कर तो तेरे में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्यरूप पर्याय प्रगट होगी। अत: आत्मा लोकोत्तर साधन है। इसप्रकार आत्मा लौकिक साधनमात्र नहीं है, परन्तु लोकोत्तर साधन १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२५७ २. वही, पृष्ठ-२५२ ३. वही, पृष्ठ-२५३ ४. वही, पृष्ठ-२५४

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