Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 158
________________ ૨૦૮ प्रवचनसार अनुशीलन अनंतवीर्यवाले तीर्थंकर भगवान भी भाषा की पर्याय नहीं कर सकते हैं तो फिर उनसे अनंतवें भाग जिसका वीर्य है - ऐसा संसारी जीव भाषा की पर्याय को बना सके - यह कैसे संभव जैन सिद्धान्त प्रवेशिका में कहा है कि मनुष्य तथा तिर्यंच का औदारिक शरीर होता है, नारकी तथा देव का वैक्रियिक शरीर होता है तथा किन्हीं मुनिराज का आहारक शरीर होता है, किन्तु तैजस व कार्मण शरीर तो सभी संसारी जीवों के ही होता है और यहाँ कहते हैं कि जीव को शरीर होता ही नहीं, शरीर तो पुद्गल जड़ परमाणु का बना हुआ है। सिद्धान्त प्रवेशिका में संसारी दशा में शरीर के संयोग का ज्ञान कराया है; किन्तु शरीर आत्मा का है, यहाँ ऐसा कहने का आशय नहीं है। पाँच शरीर पुद्गल परमाणुओं से बने हैं। रूखे-चिकनेपन के कारण पुद्गल स्कंध बने हैं, अवगाहना के कारण स्थूल सूक्ष्म बने हैं, आकार के कारण भिन्न-भिन्न संस्थान होता है। कर्म की योग्यता के कारण स्कंध कर्मरूप होते हैं और कर्म का निमित्त पाकर जुदे-जुदे शरीर होते हैं । आत्मा उनका कर्ता नहीं, इसलिए आत्मा शरीर नहीं - ऐसा निश्चित होता है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि ये औदारिक आदि शरीर शरीर नामक नामकर्म के उदयानुसार होनेवाले नोकर्मरूप परिणमन हैं। उक्त नामकर्म भी पौद्गलिक है और उसके उदयानुसार होनेवाला नोकर्मरूप शरीर भी पूर्णतः पुद्गल की रचना है; अत: इनका कर्ताधर्ता पुद्गल ही है, आत्मा नहीं। ___ वस्तुतः बात यह है कि यह ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा और मन-वचन-कायरूप औदारिक शरीर पूर्णतः भिन्न-भिन्न हैं; अत: वे शरीरादि स्वयं ही स्वयं के स्वामी हैं और स्वयं ही स्वयं के कर्ताभोक्ता हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१९२ २. वही, पृष्ठ-१९४ प्रवचनसार गाथा १७२ विगत गाथा में औदारिक आदि शरीर आत्मा नहीं है' - यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब यह बताते हैं कि शरीरादि सर्व परद्रव्यों से आत्मा को भिन्न बतानेवाला आत्मा का असाधारण स्वलक्षण क्या है ? गाथा मूलत: इसप्रकार है अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं ।।१७२।। (हरिगीत) चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।।१७२।। जीव को ऐसा जानो कि वह अरस है, अरूप है, अगंध है, अव्यक्त है, अशब्द है, अनिर्दिष्टसंस्थान है, चेतनागुण से युक्त है और अलिंगग्रहण है। आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करनेवाली सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह गाथा, वह गाथा है कि जो आचार्य कुन्दकुन्द के पाँचों ग्रन्थों में पाई जाती है। समयसार में ४९वीं, नियमसार में ४६वीं, पंचास्तिकाय में १२७वीं, अष्टपाहड के भावपाहड़ में ६४वीं गाथा है और इस प्रवचनसार में यह १७२वीं गाथा तो है ही। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में यह गाथा पाई जाती है। धवल के तीसरे भाग में भी यह गाथा है और पद्मनन्दी पंचविंशतिका एवं द्रव्यसंग्रहादि में यह उद्धृत की गई है। इसप्रकार आत्मा का स्वरूप प्रतिपादन करने वाली यह गाथा जिनागम की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गाथा है। इस गाथा में अरस, अरूप, अगंध आदि आठ विशेषणों के माध्यम से आत्मा का स्वरूप समझाया गया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241