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प्रवचनसार गाथा १६८-१६९ १६६-१६७वीं गाथा में 'आत्मा पुद्गलपिण्डों का कर्ता नहीं है' - यह सिद्ध करने के उपरान्त अब आगामी गाथाओं में यह सिद्ध करते हैं कि जिसप्रकार यह आत्मा पुद्गलपिण्डों का कर्ता नहीं है; उसीप्रकार उन्हें लानेवाला भी नहीं है तथा यह आत्मा पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप भी नहीं करता। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं
ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो। सुहमेहि बादरेहि य अप्पाओग्गेहिं जोग्गेहिं ।।१६८।। कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणई पप्पा। गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ।।१६९।।
(हरिगीत) भरा है यह लोक सूक्षम-थूल योग्य-अयोग्य जो। कर्मत्व के वे पौद्गलिक उन खंध के संयोग से ।।१६८।। स्कन्ध जो कर्मत्व के हों योग्य वे जिय परिणति ।
पाकर करम में परिणमें न परिणमावे जिय उन्हें ।।१६९।। यह लोक कर्मत्व के योग्य व अयोग्य सूक्ष्म और बादर - पुद्गल स्कन्धों से ठसाठस भरा हुआ है।
जीव की परिणति को निमित्तरूप से प्राप्त करके कर्मत्व के योग्य स्कंध कर्मरूप परिणमित होते हैं; जीव उनको नहीं परिणमाता।
आचार्य अमृतचन्द्र इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“अति सूक्ष्म और अति स्थूल न होने से कर्मरूप परिणत होने की शक्तिवाले और अति सूक्ष्म और अति स्थूल होने से कर्मरूप परिणत होने की शक्ति से रहित पुद्गलस्कन्धों द्वारा अवगाह की विशेषता के
गाथा-१६८-१६९
३०१ कारण परस्पर बाधा किये बिना स्वयमेव सर्वप्रदेशों से लोक ठसाठस भरा हुआ है।
इससे निश्चित होता है कि आत्मा पुद्गलपिण्डों को नहीं लाता।
अब यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा पुदगलपिण्डों को कर्मरूप नहीं करता। कर्मरूप परिणमित होने की शक्ति संपन्न पुद्गल स्कंध तुल्य क्षेत्रावगाही बाह्य कारणरूप जीव के परिणाममात्र का आश्रय करके स्वयमेव ही कर्मभाव से परिणमित होते हैं। इससे निश्चित होता है कि आत्मा पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप करनेवाला नहीं है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में यद्यपि इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के अनुसार ही करते हैं, तथापि निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं -
“अब यह अर्थ है कि निश्चय से शुद्धस्वरूप होने पर भी, व्यवहार से कर्मोदय के अधीन होने से पृथ्वी आदि पाँच सूक्ष्म-स्थावरत्व को प्राप्त जीवों से लोक जिसप्रकार भरा रहता है; उसीप्रकार पुद्गलों से भी भरा रहता है। इससे ज्ञात होता है कि जिस शरीरावगाहक्षेत्र में जीव रहता है; उसी में बंध के योग्य पुद्गल भी रहते हैं; जीव उन्हें बाहर से नहीं लाता।"
इन गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी १ दोहा और २ मनहरण छन्दों में इसप्रकार समझाते हैं -
(मनहरण कवित्त ) लोकाकाश के असंख प्रदेश प्रदेश प्रति,
कारमानवर्गना भरी है पदगल की। सूच्छिम और बादर अनंतानंत सर्वठौर,
अति अवगाढागाढ संधिमाहिं झलकी।। आठ कर्मरूप परिनमन सुभाव लियें,
आतमा के गहन करन जोग बल की। तेईस विकार उपयोग को संजोग पाय,
कर्मपिंड होय बंधै रहै संग ललकी ।।५१॥ अनंतानंत सूक्ष्म और बादर पौद्गलिक कार्माण वर्गणायें लोकाकाश