Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 139
________________ प्रवचनसार अनुशीलन अज्ञानी जीव सर्वज्ञ, देवाधिदेव अरहंत, सिद्ध तथा मुनि की श्रद्धा नहीं करता और सर्वज्ञ से विरुद्ध कहे जानेवाले की श्रद्धा करता है। जो जीव पुण्य से धर्म मानता है, निमित्त से लाभ मानता है; वह जैन नहीं, उसको पंचपरमेष्ठी की श्रद्धा नहीं, वह तो भगवान का विरोध करता है। अज्ञानी जीव विषय- कषाय, कुश्रवण, कुविचार, कुसंग और उग्रता का आचरण करता हुआ प्रवर्तता है, वह अशुभ उपयोग है। " शुभोपयोग और अशुभोपयोग का स्वरूप स्पष्ट करनेवाली उक्त गाथाओं में अत्यन्त संक्षेप में यह कहा गया है कि जो व्यक्ति पंचपरमेष्ठी का स्वरूप जानकर उनमें श्रद्धा रखता है, उनकी भक्ति करता है, उनका गुणगान करता है और जीवों के प्रति करुणाभाव रखता है; उसका वह भाव शुभभाव कहलाता है और वह शुभभाव पुण्यबंध का कारण है। जिसका उपयोग विषय - कषाय में मग्न रहता है, जो उग्रस्वभावी है, उन्मार्ग में लगा है और कुश्रुत, कुविचार और कुसंगति में पड़ा है, वह अशुभोपयोगी है और वह पापबंध करता है। जो व्यक्ति इन दोनों प्रकार के अशुद्धोपयोग से विरक्त रह अपने आत्मा का ध्यान करता है, वह शुद्धोपयोगी कर्मों का नाश करता है। • १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ १५१ २७० आचार्य भगवन्तों का मात्र यही आदेश है, यही उपदेश है, यही सन्देश है • सम्पूर्ण जगत से दृष्टि हटाकर एकमात्र अपने आत्मा की साधना करो, आराधना करो; उसे ही जानो, पहिचानो; उसी में जम जावो, उसमें ही रम जावो, उसमें ही समा जावो, इससे ही अतीन्द्रियानन्द की प्राप्ति होगी परमसुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। पर को छोड़ने के लिए, पर से छूटने के लिए इससे भिन्न कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि पर तो छूटे हुए ही हैं। वे तेरे कभी हुए ही नहीं हैं; तूने ही उन्हें अज्ञानवश अपना मान रखा था, अपना जान रखा था और उनसे राग कर व्यर्थ ही दुःखी हो रहा था । तू अपने में मगन हुआ तो वे छूटे हुए ही हैं। - बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-७०-७१ प्रवचनसार गाथा १५९ विगत गाथाओं में शुद्धोपयोग और अशुद्धोपयेग के भेद-प्रभेदों और उनका फल दिखाकर अब इस गाथा में परद्रव्य के संयोग के कारण के विनाश का अभ्यास कराते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है - असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि । होज्जं मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए । । १५९ ।। ( हरिगीत ) आतमा ज्ञानात्मक अनद्रव्य में मध्यस्थ हो । ध्यावे सदा ना रहे वह नित शुभ-अशुभ उपयोग में ।। १५९ । । अन्य द्रव्य में मध्यस्थ होता हुआ मैं अशुभोपयोग से रहित होता हुआ और शुभोपयोग में उपयुक्त नहीं होता हुआ ज्ञानात्मक आत्मा को ध्याता हूँ । ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ गाथा में अशुभोपयोग से निवृत्ति और शुभोपयोग में प्रवृत्ति न करने की बात कही है। दोनों के हेयपने में थोड़ा-बहुत अन्तर डाला है। तात्पर्य यह है कि अशुभोपयोग को तो बुद्धिपूर्वक छोड़ना पड़ता है; पर शुभोपयोग सहज ही छूट जाता है; क्योंकि शुद्धोपयोग में चले जाने पर शुभोपयोग रहता ही नहीं है । मेरा कहना मात्र इतना ही है कि अशुभ से निवृत्ति और शुभ में अप्रवृत्ति - इस कथन में कुछ विशेष भाव भरा हुआ है। उसे जानने की कोशिश की जानी चाहिए । इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र इस प्रकार स्पष्ट करते हैं - “परद्रव्य के संयोग के कारणरूप में कहा गया अशुद्धोपयोग वस्तुतः मन्द-तीव्र उदय दशा में रहनेवाले परद्रव्यानुसार परिणति के अधीन होने से ही प्रवर्तित होता है, अन्य कारण से नहीं। इसलिए मैं समस्त परद्रव्यों में मध्यस्थ होता हूँ ।

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