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गाथा-१६२
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प्रवचनसार अनुशीलन स्पष्ट करते हैं
(मनहरण कवित्त) मैं जोहों विशुद्ध चेतनत्वगुनधारी सोतो,
पुग्गल दरवरूप कभी नाहिं भासतो। तथा देह पुग्गल को पिंड है सुखंध बंध,
सोउ मैंने कीनों नाहिं निहचै प्रकासतो।। ये तो हैं अचेतन औ मूरतीक जड़ दर्व,
मेरो चिच्चमतकार जोत है चकासतो। तारै मैं शरीर नाहिं करता हूँताको नाहिं,
मैं तो चिदानंद वृन्द अमूरत सासतो ।।३३।। मैं तो विशुद्ध चैतन्यगुणधारी हूँ। वह मैं कभी भी पुद्गलद्रव्यरूप प्रतिभासित नहीं होता। पुद्गल के पिण्डरूप अच्छी तरह बंधे हुए इस शरीर को मैंने नहीं किया है। यह बात सुनिश्चित ही है, निश्चयनय से प्रकाशित है। यह शरीर तो अचेतन है, मूर्तिक है, जड़ द्रव्य है और मेरा स्वरूप तो जगमगाती चिच्चमत्कार ज्योतिरूप है; इसलिए न तो मैं शरीर हूँ, न शरीर का कर्ता हूँ। वृन्दावन कवि कहते हैं कि मैं तो अमूर्तिक शाश्वत ज्ञानानन्दस्वभावी द्रव्य हूँ।। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं
(सवैया तेईसा) चेतनि द्रव्य सु मैं न अचेतन पुग्गल भाव जुदौ निरवारो। सूछम जो तन की परमानूं यकी यह पिंड कियौ न हमारो ।। मैं तिहि नैं निज ग्यान स्वरूप सरीरमई सु विकार तैं न्यारो। पुग्गल द्रव्य स्वरूप सु देह न मैं तिहि कौं उपजावनहारो।।११८।। मैं अचेतन पौद्गलिक पदार्थों से भिन्न चेतन द्रव्य हूँ। जिन सूक्ष्म परमाणुओं से शरीर की रचना हुई है, उनका और उनके पिंड का कर्ता मैं नहीं हूँ। मैं तो विकारी भावों से भिन्न ज्ञानशरीरी तत्त्व हूँ। पुद्गलमयी देह
को उत्पन्न करनेवाला मैं नहीं हूँ।
स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “१. आत्मा ज्ञानस्वरूपी चेतन है और शरीर ज्ञान बिना अचेतन है।
२. आत्मा अमूर्त - स्पर्श, रस, गंध, वर्ण रहित है और शरीर मूर्त - स्पर्श-रसवाला है।
३. आत्मा अखण्ड एकरूप है और शरीर पूरण व गलनरूप होने से खण्ड-खण्ड वाला है।
इसकारण आत्मा का शरीरपने होने में विरोध है।
शरीर का कर्ता, करण, प्रयोजक अथवा अनुमोदक मैं नहीं हूँ; क्योंकि अनेक परमाणुओं में स्वयं ही पिण्डरूप होने की योग्यता होने से वे पिण्डरूप होते हैं। वाणी के परमाणु स्वयं पिण्डरूप होकर शब्दरूप परिणमते हैं। शरीर अनेक परमाणुओं की एक पिण्डरूप अवस्था है
और उसके कर्ता वे परमाणु ही हैं, आत्मा उनका कर्त्ता नहीं है।" ___ इस गाथा और इसकी टीका में मात्र यही कहा गया है कि आत्मा
और शरीर भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। यह भगवान आत्मा शरीर का न तो कर्ता है, न करण, न कारयिता है और न अनुमंता ही है। पुद्गल परमाणुओं से बना यह शरीर स्वयं परिणमनशील है; वह अपने परिणमन का कर्ता स्वयं है। इसीप्रकार भगवान आत्मा भी स्वयं परिणमनशील पदार्थ है; इसकारण वह भी अपने परिणमन का कर्ता स्वयं है। न तो परद्रव्यध्वसियर कार्मा हैं पूऔर क वह शरीरादि परद्रव्यों का कर्ता है। .
पर के साथ के अभिलाषी प्राणियो! तुम्हारा सच्चा साथी आत्मा का अखण्ड एकत्व ही है, अन्य नहीं। यह एकत्व तुम्हारा सच्चा साथी ही नहीं, ऐरावत हाथी भी है; इसका आश्रय ग्रहण करो, इस पर चढ़ो और स्वयं अन्तर के धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थकर बन जावो; धर्म की धवल पाण्डुक शिला पर तुम्हारा जन्माभिषेक होगा, पावन परिणतियों की प्रवाहित अजस्र धारा में स्नान कर तुम धवल निरंजन हो जाओगे।
- बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ