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प्रवचनसार अनुशीलन पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं का भाव १ अडिल्ल, २ कवित्त और १ दोहा - इसप्रकार कुल ४ छन्दों में विस्तार से प्रस्तुत करते हैं। तत्त्वप्रदीपिका टीका और वृन्दावनदासजी कृत प्रवचनसार परमागम में यह विषय इसी रूप में विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है; इसलिए पुनरावृत्ति के भय से यहाँ देना संभव नहीं है। जिज्ञासु पाठक उनका मूलत: अध्ययन करें।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"चेतना तीन प्रकार की है। ज्ञानसंबंधी जागृति ज्ञानचेतना है; विकार परिणाम में चेतना का अटक जाना कर्मचेतना है और हर्ष-शोकरूप भावों में चेतना का अटक जाना कर्मफलचेतना है।
सम्पूर्ण ज्ञानचेतना केवली भगवान को होती है, साधक दशा में मुख्यरूप से ज्ञानचेतना होती है, अस्थिरता के राग-द्वेष में तथा हर्षशोक में जितना जुड़ान है, उतनी कर्म चेतना और कर्मफल चेतना गौणरूप से कही गई है। मिथ्यादृष्टि को ज्ञानचेतना नहीं होती। उसे कर्मचेतना
और कर्मफलचेतना ही होती है। कर्मचेतना और कर्मफलचेतना एक ही समय में है। आत्मा जिस समय विकार भाव करता है, उसी समय हर्षशोक को भोगता है। यहाँ पर पदार्थ को भोगने की बात ही नहीं है; क्योंकि पर को जीव नहीं भोग सकता, हर्ष-शोक को भोगता है।
कर्तृत्व और भोक्तृत्व में समयभेद नहीं है, दोनों एक ही समय में है; इसतरह आत्मा चेतनारूप परिणमित होता है, वह तीनप्रकार की कही है।
यह ज्ञेय अधिकार है, इसमें स्व के द्रव्य-गुण-पर्याय स्वज्ञेय हैं और पर के द्रव्य-गुण-पर्याय परज्ञेय हैं - दोनों को विशेषता से जानना उसे विकल्प कहते हैं। ज्ञान का ही स्वभाव विकल्प है; इसलिए केवलज्ञान को भी विकल्पात्मक कहने में आया है।
जिसतरह दर्पण के अपने विस्तार में स्व और पर के भेद एक ही साथ १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३९३
२. वही, पृष्ठ-३९५
गाथा-१२३-२४
१५३ जानने में आते हैं; उसीतरह जिसमें स्व और पर उनके भेद सहित युगपत जानने में आते हैं, उसे अर्थविकल्प कहते हैं अथवा ज्ञानचेतना कहते हैं। __ कोई कहता है कि हमने अकेले आत्मा को जाना है; किन्तु विकार और पर-पदार्थों को नहीं जाना अथवा वे ख्याल में नहीं आते। तो उसने आत्मा को भी यथार्थ नहीं जाना, वह ज्ञानचेतना नहीं कहलाती और कोई कहे कि हमने परपदार्थ और निमित्तों को तथा विकार को जाना है; किन्तु हमें आत्मा का ख्याल नहीं आता। तो उसने परपदार्थों को भी यथार्थ नहीं जाना, वह भी ज्ञानचेतना नहीं कहलाती। स्व को यथार्थ जानने पर, परपदार्थ जानने में न आए ऐसा होता ही नहीं और स्व के भान बिना एकांत परसंबंधी ज्ञान के उघाड़ को मिथ्याज्ञान कहते हैं।'
सम्यग्दृष्टि जीव को स्व-पर का ज्ञान युगपद् होता है। जब धर्मी जीव का उपयोग परपदार्थों में होता है, तब स्व का ज्ञान पर्याय में लब्धिरूप पड़ा है। ज्ञान की पर्याय लब्धि को छोड़कर एकांत पर-उपयोगरूप नहीं हुई है और जब उपयोग स्व आत्मा में होता है, तब परपदार्थ का ज्ञान पर्याय में लब्धिरूप पड़ा है, यह ज्ञान की पर्याय लब्धि को छोड़कर एकांत स्व-उपयोगरूप नहीं हुई है।
ज्ञान का लब्धि और उपयोगपना एक ही पर्याय में और एक ही समय में है; इसीलिए साधक अर्थात् धर्मी जीवों को स्व-पर पदार्थों का प्रकाशित होना अर्थात् ज्ञान होना युगपत है, एक ही समय में है, समय भेद नहीं है। स्व-पदार्थ के उपयोगरूप ज्ञान के समय पर के लब्धिरूप ज्ञान का नाश नहीं होता, अपितु पर के लब्धिरूप ज्ञान का उसी पर्याय में उसीसमय सद्भाव है और पर-पदार्थ के उपयोगरूप ज्ञान के समय स्व के लब्धिरूप ज्ञान का नाश नहीं होता, अपितु स्व के लब्धिरूप ज्ञान का उसी पर्याय में उसी समय सद्भाव है। इसीलिए साधक दशा में भी ज्ञानचेतना युगपत स्व-पर को प्रकाशित करती है।
इसप्रकार आत्मा और पर-पदार्थों का यथार्थ विभाग करके जो ज्ञान की पर्याय आत्मा के साथ अभेद होती है, उसे ज्ञानचेतना कहते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३९८
२. वही, पृष्ठ-३९९