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प्रवचनसार अनुशीलन द्रव्य-गुण-पर्याय तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य मेरे कारण से हैं और मेरे में हैं एवं जड़ के द्रव्य-गुण-पर्याय तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य जड़ के कारण हैं और जड़ में हैं। मैं चेतन हूँ, जड़ के कारण मेरी अवस्था नहीं और मेरे कारण जड़ की अवस्था नहीं।
लक्ष्मी, मकान, दुकान, देव-गुरु-शास्त्र, शरीर एवं कर्म से मैं जुदा हूँ। उनके द्रव्य-गुण-पर्याय उनमें हैं। मेरा और उन द्रव्यों का कोई संबंध नहीं। शुभाशुभ भाव मेरी चेतन पर्याय में नहीं। सभी को जाननेवाली मेरी चेतनपर्याय है, उससे मैं सभी को मात्र जानता हूँ। मैं शरीर कर्म विकार से जुदा ज्ञानस्वभावी चेतन द्रव्य हूँ। मैं सभी से जुदा हूँ' धर्मी जीव ऐसी भावना भाता है। ____ अनंत ज्ञानी कहते हैं कि स्वरूप-अस्तित्व से अन्य पदार्थों व उनकी पर्यायों से भेदज्ञान करना धर्म है। ज्ञानी स्वयं में आकर भेदविज्ञान पूर्वक भावना भाता है। मैं अनुकूल-प्रतिकूल संयोगरूप नहीं, शरीरादिरूप नहीं, अल्प राग-द्वेष होते हैं, वह भी मैं नहीं। मैं तो देहदेवल में चैतन्य ज्ञानस्वरूप विराजता हूँ - ऐसा भान पात्र जीव कर सकता है। प्रथम ऐसा भान हो; फिर स्थिरता हो, पश्चात् मुनिपना अंगीकार करके वीतरागदशा को प्राप्त करता है।
इसप्रकार स्वरूप-अस्तित्व स्वभाववाले चेतनद्रव्य को स्वज्ञेयरूप और परज्ञेय को परज्ञेयरूप जानना सम्यग्ज्ञान है और वही धर्म है।"
इस गाथा और उसकी टीका में यह बात अत्यन्त स्पष्ट रूप से कही गई है कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूपास्त्तित्व प्रमाण ही है। प्रत्येक वस्तु में पाये जाने वाले द्रव्य, गुण और पर्यायें तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ही उसका स्वरूपास्तित्व है।
मनुष्यादि असमानजातीय द्रव्यपर्याय में जीव का स्वरूपास्तित्व अलग है और देहादि का स्वरूपास्तित्व अलग है। यह जानना ही भेदविज्ञान है और यह भेदविज्ञान निरन्तर भाने योग्य है; क्योंकि अनादिकालीन देह में जो एकत्वबुद्धि है; वह इसके बिना टूटनेवाली नहीं है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१३४
प्रवचनसार गाथा १५५-१५६ 'चार प्राणरूप शरीर अन्य है और मैं अन्य हूँ।' विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि उक्त शरीर के समागम का मूल कारण क्या है ? गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं -
अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं भणिदो। सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पगो हवदि।।१५५।। उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि। असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ।।१५६।।
(हरिगीत) आतमा उपयोगमय उपयोग दर्शन-ज्ञान हैं। अर शुभ-अशुभ के भेद भी तो कहे हैं उपयोग के ।।१५५।। उपयोग हो शुभ पुण्यसंचय अशुभ हो तो पाप का।
शुभ-अशुभ दोनों ही न हों तो कर्म का बंधन न हो ।।१५६।। आत्मा उपयोगात्मक है और ज्ञान-दर्शन को उपयोग कहते हैं। आत्मा का यह उपयोग शुभ और अशुभ के भेद से भी दो प्रकार होता है। उपयोग यदि शुभ हो तो पुण्य का संचय होता है और यदि अशुभ हो तो पाप का संचय होता है तथा दोनों के अभाव में कर्मों का संचय नहीं होता।
उक्त गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“वस्तुत: परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोग विशेष है । चैतन्यानुविधायी परिणाम होने से उपयोग आत्मा का स्वभाव है और वह उपयोग ज्ञान-दर्शनरूप है; क्योंकि वह साकार और निराकाररूप से उभयरूप है। ___ यह उपयोग शुद्धोपयोग और अशुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का होता है। इनमें शुद्धोपयोग निरुपराग (निर्विकार) है और अशुद्धोपयोग सोपराग (सविकार) है। शुभ और अशुभ के भेद से अशुद्धोपयोग भी दो प्रकार का है; क्योंकि वह विशुद्धिरूप और संक्लेशरूप होता है।