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प्रवचनसार गाथा १३७-३८
विगत अनेक गाथाओं से सप्रदेशी और अप्रदेशी की बात चल रही है । अब उसी बात को आगे बढ़ाते हुए इन गाथाओं में यह स्पष्ट करते हैं कि वह सप्रदेशीपना और अप्रदेशीपना किसप्रकार संभव है ?
गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं
जध ते णभप्पदेसा तधप्पदेसा हवंति सेसाणं । अपदेसो परमाणू तेण पदेसुब्भवो भणिदो ।। १३७ ।। समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स । वदिवददो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स ।। १३८ ।। ( हरिगीत )
जिसतरह परमाणु से है नाप गगन प्रदेश का । बस उसतरह ही शेष का परमाणु रहित प्रदेश से ।। १३७ ।। पुद्गलाणु मंदगति से चले जितने काल में ।
रे एक गगनप्रदेश पर परदेश विरहित काल वह ।। १३८ ।। जिसप्रकार आकाश के प्रदेश हैं; उसीप्रकार शेष द्रव्यों के प्रदेश भी हैं। तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार आकाश के प्रदेश परमाणुरूप मीटर से नापे जाते हैं; उसीप्रकार शेष द्रव्यों के प्रदेश भी इसीप्रकार नापे जाते हैं। परमाणु अप्रदेशी है और उसके द्वारा प्रदेशोद्भव कहा गया है।
काल तो अप्रदेशी है और प्रदेशमात्र पुद्गल परमाणु आकाशद्रव्य के प्रदेश को मंदगति से उल्लघंन कर रहा हो, तब वह काल वर्तता है अर्थात् निमित्तभूततया परिणमित होता है।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"आचार्य कुन्दकुन्द १४०वीं गाथा में स्वयं कहेंगे कि आकाश के प्रदेश का लक्षण एक परमाणु से व्याप्त होना है और यहाँ इस गाथा में
गाथा-१३७-३८
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'जिसप्रकार आकाश के प्रदेश हैं; उसीप्रकार शेष द्रव्यों के भी प्रदेश हैं'. इसप्रकार प्रदेश के लक्षण की एक प्रकारता कही जा रही है।
जिसप्रकार एक परमाणु से व्याप्य अंश के द्वारा गिने जाने पर आकाश अनन्त प्रदेशी है; उसीप्रकार एक परमाणु से व्याप्य अंश के द्वारा गिने जाने पर धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात अंश होने से वे सभी असंख्यातप्रदेशी हैं।
जिसप्रकार सुनिश्चित प्रमाणवाले धर्म तथा अधर्मद्रव्य असंख्यातप्रदेशी हैं; उसीप्रकार संकोचविस्तार के कारण अनिश्चित प्रमाणवाले जीव के भी, सूखे-गीले चमड़े के समान निज अंशों का अल्प - बहुत्व नहीं होता; इसकारण असंख्यातप्रदेशीपना ही है।
अमूर्त पदार्थ के संकोच विस्तार की सिद्धि तो अपने अनुभव से ही साध्य है, क्योंकि यह तो सभी स्वानुभव से जानते ही हैं कि जीव स्थूल और कृश शरीर में तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है।
पुद्गल तो द्रव्य की अपेक्षा एकप्रदेशमय होने से पहले कहे अनुसार अप्रदेशी ही है; तथापि दो ( अनेक) प्रदेशादि के उद्भव के हेतुभूत उसप्रकार के स्निग्ध-रूक्ष गुणरूप परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाव के कारण उसके प्रदेशों का उद्भव है; इसलिए पर्याय की अपेक्षा से अनेकप्रदेशीपना भी संभव होने से पुद्गल को द्विप्रदेशीपने से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनंतप्रदेशीपना भी न्याययुक्त है, युक्तिसंगत है।
प्रदेशमात्र होने से कालद्रव्य अप्रदेशी ही है और उसे पुद्गल के समान पर्याय से भी अनेक प्रदेशीपना नहीं है; क्योंकि परस्पर अन्तर के बिना विस्ताररूप विस्तृत प्रदेशमात्र असंख्यात कालद्रव्य होने पर भी परस्पर संपर्क न होने से एक-एक आकाश प्रदेश को व्याप्त करके रहनेवाले कालद्रव्य की वृत्ति तभी होती है कि जब एक प्रदेशी परमाणु कालाणु से व्याप्त एक आकाश प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन करता है। "
आचार्य जयसेन ने इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करने के लिए कुछ विशेष नहीं लिखा है; वे अमृतचन्द्र की बात को ही दुहरा देते हैं।