Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 130
________________ २५३ २५२ प्रवचनसार अनुशीलन में कमल के समान निर्लेप रहते हैं। जिनकी हृदय ज्योति की तरंग डाक रहित स्फटिक मणि के समान निर्मल है; वह व्यक्ति तो विशुद्ध स्वभाव की गंगा में निरन्तर नहाता है; वह प्राणरूपी मल से बंधा कैसे रह सकता है ? पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं के भाव को १ कवित्त और १ सवैया इकतीसा - इसप्रकार २ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जिनमें कवित्त इसप्रकार है (कवित्त ) चेतन यह सु अनादि काल से कर्म मेल तिहि कर सुमलीन । तावत काल प्रान ये फिरि फिरि और और पुनि धरै नवीन ।। संसारी सु भोग-विषयादिक तिन्हि के विर्षे सरीर प्रवीन । जिनि सौं सदा ममत्व बुद्धि अति छोड़े नहीं महा मति हीन ।।१०२।। यह चेतन अनादिकाल से कर्मरूपी मैल से मलीन हो रहा है और जबतक मलीन रहेगा, तबतक बारम्बार नवीन प्राणों को धारण करता रहेगा। यह संसारी जीव शरीरादिक विषयभोगों में प्रवीन है और यह मतिहीन संसारी जीव शरीर और विषय भोगों से ममत्वबुद्धि नहीं छोड़ता। अगले छन्द में यह कहा है कि जब यह जीव शरीर में ममत्वबुद्धि और विषयभोगों में सुखबुद्धि छोड़ देता है तो फिर नवीन शरीर धारण नहीं करता। इन गाथाओं के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “अज्ञानी जीव चैतन्य स्वभाव के भान बिना शरीर अथवा स्त्रीपुत्रादि के प्रति ममता करता है तथा देव-शास्त्र-गुरु से अथवा दया, दानादि के भाव से मुझे धर्म होगा - ऐसा मानकर उनके प्रति भी ममता करता है। जबतक यह जीव इस ममतारूप विकारी परिणमन का परित्याग नहीं करता, तबतक विकार के निमित्त से बारम्बार आठों कर्मों का बंधन होता ही रहता है और इसी कारण पुनः-पुनः द्रव्यप्राणों का संबंध भी होता है।' इस गाथा में उपयोगमात्र आत्मा को ध्याने योग्य कहा है। उपयोगमात्र के ऊपर खास वजन है। आत्मा पाँच इन्द्रियों तथा प्राणरूप तो है ही नहीं; १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-११० गाथा-१५०-१५१ अपितु संकल्प, विकल्प, दया, दान स्वरूप भी नहीं है। वह तो जाननेदेखने रूप सहज स्वभाव वाला है। उपयोगमात्र आत्मा को ध्याने से कर्म, शरीर और प्राण जीव से नहीं चिपकते।' ___ इसप्रकार अत्यन्त विशुद्ध उपयोग की आत्मा में लीनता ही प्राणों की परंपरा की निवृत्ति का अंतरंग हेतु है। गाथा १५० में कहा है कि देहप्रधानदृष्टि प्राणों की परंपरा का कारण है । गाथा १५१ में कहा है कि ज्ञानस्वभावप्रधानदृष्टि ही प्राण के अभाव का कारण है अर्थात् वही संसार के नाश का उपाय है। तात्पर्य यह है कि जिसे आत्मा को अत्यंत भिन्नपने साधना हो अथवा सिद्धदशा प्रगट करनी हो, उसे व्यवहारजीवत्व के हेतभत प्राणों का इस रीति से नाश करना चाहिए। पाँच इन्द्रिय शरीर. मन. वाणी सभी जड़ हैं, वे आत्मा के स्वरूप नहीं; आत्मा ज्ञानस्वभाव है, उसकी प्रतीति करके एकाग्रता करना पूर्णपद की प्राप्ति का उपाय है। तीन काल में परमार्थ का पंथ एक ये ही है और इसी उपाय से प्राण रहित होते हैं। यथार्थ ज्ञान बिना सम्यक्त्व नहीं होता, सम्यक्त्व बिना चारित्र नहीं होता, चारित्र बिना केवलज्ञान नहीं होता और केवलज्ञान बिना सिद्धदशा नहीं होती। इसलिए सर्वज्ञ भगवान ने जैसा जाना है और कहा है, वैसा जानो। प्राणों से भिन्न होने का यही एक उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है।” इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि जबतक यह आत्मा शारीरिक विषयों में ममत्व करना नहीं छोड़ता, उन्हें अपना मानना और उनसे राग-द्वेष करना नहीं छोड़ता; तबतक कर्मबंध होता है और कर्मोदय से बारम्बार अन्य-अन्य गतियों में शारीरिक प्राणों को धारण करता है और जो आत्मा ज्ञानानन्दस्वभावी निज आत्मा को ही अपना जानतामानता है, उसमें ही अपनापन स्थापित करता है, उसका ही ध्यान करता है, विषयों में रंजित नहीं होता; उसके प्राणों का संयोग नहीं होता अर्थात् वह मुक्त हो जाता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-११३ २. वही, पृष्ठ-११६ ३. वही, पृष्ठ-११७

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