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गाथा-१४५
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प्रवचनसार अनुशीलन तत्त्व है। अत: उसे जाननेवाले के रूप में ही जाना जावेगा; क्योंकि इसमें जानने का गुण विद्यमान है।
अब, यहाँ विशेष समझने की बात यह है कि आचार्यदेव ने जब ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार शुरू किया था तो उसके प्रारम्भ में पर्यायमूढ़ ही परसमय है - ऐसा कहा था।
उसके बाद की गाथाओं और उनकी टीका के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वहाँ पर पर्याय के नाम पर असमानजातीयद्रव्यपर्याय की ही चर्चा है। इस बात की विस्तृत चर्चा पहले हो चुकी है।
इसके बाद यहाँ पुन: आचार्यदेव मनुष्य, देव, नारकी, आदि को व्यवहारजीव कहकर उसी असमानजातीयद्रव्यपर्याय की मुख्यता से बात कर रहे हैं; क्योंकि मनुष्यजीव में जीव और अनंत पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड शामिल है।
इसप्रकार इस सम्पूर्ण प्रकरण में देहदेवल में विराजमान देह से भिन्न भगवान आत्मा की ही चर्चा है।
ध्यान रहे प्रमेयत्वगुण से सम्पन्न अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को परज्ञेयों से ही भिन्न जानना है, स्वज्ञेयरूप निजात्मा से नहीं।
जो तीन काल में कम से कम चार प्राणों से जीवे, वह व्यवहारजीव है। इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास - ये चार प्राण हैं।
इन्द्रियों में पाँचों इन्द्रियाँ और बल में तीन बल शामिल होने से तथा आयु व श्वासोच्छ्वास - इन चार प्राणों से जीता है, सो जीव है से तात्पर्य यही है कि जो दस प्राणों से जीता है, वह जीव है।
ये दस प्राण देह के ही अंग हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण - ये पाँचों इन्द्रियाँ तथा मन, वचन और काय - ये तीन बल तथा श्वासोच्छवास - ये सब देह के ही अंग हैं। देह और आत्मा के सुनिश्चित काल के संयोग का नाम आयु होने से आयु भी देह में शामिल है।
इसप्रकार जो देह और आत्मा की मिली हुई असमानजातीयद्रव्यपर्याय है, उसका नाम ही व्यवहारजीव है।
स्वपर को जानने की अनंतशक्ति जिसमें विद्यमान है, उसका नाम निश्चयजीव है तथा जो देह और आत्मा की मिली हुई असमानजातीयद्रव्यपर्याय है, उसका नाम व्यवहारजीव है।
दश प्राणों से भेदविज्ञान के माध्यम से आचार्यदेव मनुष्यादिपर्यायरूप असमानजातीयद्रव्यपर्याय और त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा के बीच में विभाजन रेखा खींचना चाहते हैं।
इसप्रकार यह ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार भगवान आत्मा को मनुष्यादिपर्यायरूप व्यवहारजीव से विभक्त करनेवाला अधिकार है।
अब सर्वप्रथम आत्मा को पर से अत्यन्त विभक्त करने के लिए व्यवहारजीवत्व के हेतु का विचार करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - सपदेसेहिं समग्गो लोगो अटुंहिं णिट्ठिदो णिच्चो। जो तं जाणदि जीवो पाणचदुक्काभिसंबद्धो ।।१४५।।
(हरिगीत) सप्रदेशपदार्थनिष्ठित लोक शाश्वत जानिये।
जो उसे जाने जीव वह चतुप्राण से संयुक्त है ।।१४५।। सप्रदेश पदार्थों से निष्ठित सम्पूर्ण लोक नित्य है। उसे जो जानता है, वह जीव है; जो कि संसार अवस्था में कम से कम चार प्राणों से संयुक्त होता है। ___ तात्पर्य यह है कि सप्रदेशी छह द्रव्यों के समुदायरूप इस लोक में जाननेवाले द्रव्य एक मात्र जीव हैं और शेष द्रव्य अजीव हैं।
जीव द्रव्य ज्ञान भी है और ज्ञेय भी है, शेष द्रव्य मात्र ज्ञेय ही हैं। जाननेवाला जीव संसार अवस्था में कम से कम चार प्राणों से जीता है, जीवित रहता है।
उक्त गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -