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प्रवचनसार अनुशीलन
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि कालद्रव्य एक प्रदेशी द्रव्य है, जिसे अप्रदेशी भी कहा जाता है। अनेक प्रदेशीपने के निषेध के लिए उसे अप्रदेशी कहा गया था; किन्तु कुछ लोगों ने उसे सचमुच ही अप्रदेशी मान लिया । यही कारण है कि यहाँ इस बात पर वजन दिया जा रहा है कि वह एक प्रदेशी है, प्रदेशों से पूर्णतः रहित नहीं। इसलिए वह प्रदेशवान द्रव्य है, अप्रदेशी नहीं। न तो वह धर्मद्रव्य के समान असंख्यप्रदेशी ही है और न एक प्रदेश रहित ही है।
यहाँ एक प्रश्न यह संभव है कि विगत गाथाओं में तो कालद्रव्य को अप्रदेशी नास्तिकाय पूरी शक्ति लगाकर सिद्ध करते आये हैं और अब उतने ही जोर से यह बात कही जा रही है कि वह अप्रदेशी नहीं है, सप्रदेशी ही है। इसका कारण क्या है ?
अरे भाई ! बात यह है कि कालद्रव्य मूलत: तो एकप्रदेशी ही है; न वह बहुप्रदेशी है और न प्रदेश रहित अप्रदेशी ही है।
यदि कालद्रव्य अप्रदेशी नहीं है तो फिर उसे अप्रदेशी क्यों कहा जाता है ?
बहुप्रदेशत्व के निषेध के लिए उसे अप्रदेशी कहा जाता है; किन्तु वह प्रदेशों से पूर्णतः रहित नहीं है, एक प्रदेश तो उसके भी होता ही है।
इसमें अधिक विकल्प करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उक्त कथनों में परस्पर विरोध नहीं है, मात्र विवक्षाभेद है।
इसप्रकार यहाँ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में द्रव्यविशेषाधिकार समाप्त होता है।
ज्ञान के ज्ञेयरूप आत्मा में राग-द्वेष भी हो सकते हैं, होते भी हैं; पर श्रद्धेय आत्मा राग-द्वेषादि भावों से भिन्न ही होता है। ज्ञान आत्मा के स्वभाव एवं स्वभाव-विभाव सभी पर्यायों को भी जानता है; पर श्रद्धा मात्र स्वभाव में ही अपनत्व स्थापित करती है, एकत्व स्थापित करती है। अतः श्रद्धा का आत्मा मात्र स्वभावमय ही है।
-गागर में सागर, पृष्ठ-२४
ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ( गाथा १४५ से गाथा २०० तक)
प्रवचनसार गाथा १४५ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में द्रव्यसामान्याधिकार और द्रव्यविशेषाधिकार के समाप्त होने के बाद अब यहाँ ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार आरंभ करते हैं।
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार यहाँ समाप्त ही हो गया समझो; क्योंकि सामान्य ज्ञेय और विशेष ज्ञेय - दोनों प्रकार से ज्ञेयों की चर्चा हो चुकी है; किन्तु आत्मकल्याण की दृष्टि से ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व - इन दोनों की पृथक्ता बताना अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि आचार्यदेव उक्त दोनों महाधिकारों के बाद इस ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अन्तर्गत ही ज्ञान और ज्ञेय में अन्तर बतानेवाले इस ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार को आरंभ करते हैं।
यद्यपि मैं (आत्मा) ज्ञानतत्त्व हूँ; तथापि मैं (आत्मा) ज्ञेयतत्त्व भी हूँ। ऐसी स्थिति में यहाँ प्रश्न यह है कि ज्ञानतत्त्व में भी आत्मा की चर्चा एवं ज्ञेयतत्त्व में भी आत्मा की ही चर्चा - दोनों ही स्थानों पर एक आत्मा की ही चर्चा क्यों की जा रही है ? इन दोनों में अन्तर क्या है ?
अरे भाई ! ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन में जाननेवाले आत्मा की चर्चा की गई है और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन में जानने में आनेवाले आत्मा की चर्चा की जा रही है। वस्तुत: बात यह है कि 'यह आत्मा जाननेवाला है' - ऐसा हमें जानना है।
यह भगवान आत्मा ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार में जाननेवाले तत्त्व के रूप में उपस्थित है एवं ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार में जानने में आने वाले तत्त्व के रूप में उपस्थित है। चूँकि इस आत्मा का स्वभाव जानना है। जानने में जो आत्मा आ रहा है, वह आत्मा भी जानने के स्वभाववाला