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प्रवचनसार अनुशीलन कालद्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और बहुप्रदेशों के समूह को काय कहते हैं। ___ इस गाथा की टीका में आचार्य जयसेन मात्र इतना ही लिखते हैं कि पाँच अस्तिकायों में जीवास्तिकाय उपोदय है। उसमें भी पंचपरमेष्ठीरूप पर्याय उपादेय है; उसमें अरहंत और सिद्धदशा उपादेय है, उसमें भी सिद्धदशा उपादेय है।
अन्त में लिखते हैं कि वस्तुत: बात यह है कि रागादि सम्पूर्ण विकल्प समूहों के निषेध के समय सिद्ध जीव के समान अपना शुद्धात्मस्वरूप ही उपादेय है।
इस गाथा में कोई ऐसी बात नहीं है कि जिसके न होने से ग्रन्थ की विषयवस्तु में कोई व्यवधान आता हो । जो बातें विगत गाथाओं में कही जा चुकी हैं; उन्हीं को मात्र दुहरा दिया है। ___हाँ, यह बात विशेष है कि इसकी टीका में शुद्धात्मस्वरूप भगवान आत्मा को परम उपादेय बताया गया है।
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प्रवचनसार गाथा १३६ विगत गाथा में सप्रदेशी और अप्रदेशी द्रव्यों की चर्चा की। अब इस गाथा में वे द्रव्य कहाँ-कहाँ रहते हैं अर्थात् कौन कहाँ रहता है - इसकी चर्चा करेंगे। गाथा मूलतः इसप्रकार हैलोगालोगेसु णभो धम्माधम्मेहिं आददो लोगो। सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा ।।१३६।।
(हरिगीत ) गगन लोकालोक में अर लोक धर्माधर्म से।
है व्याप्त अर अवशेष दो से काल पुद्गलजीव हैं ।।१३६।। आकाश लोकालोक में और धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल और काल लोकाकाश में रहते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“आकाश लोक और अलोक में है; क्योंकि वह छह द्रव्यों के समवाय और असमवाय में बिना विभाग के रहता है। ____ धर्म और अधर्म द्रव्य लोक में सर्वत्र हैं; क्योंकि उनके निमित्त से जिनकी गति और स्थिति होती है - ऐसे जीव और पुद्गलों की गति
और स्थिति लोक के बाहर नहीं होती और न लोक के एकप्रदेश में होती है। तात्पर्य यह है कि धर्म और अधर्म द्रव्यों की स्थिति लोक में सर्वत्र होती है। ___ काल भी लोक में है; क्योंकि जीव और पुद्गलों के परिणामों के द्वारा काल की समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं और वह काल लोक के एक प्रदेश में ही है; क्योंकि वह अप्रदेशी है।
अध्यात्म के नयों के सभी उदाहरण आगम में भी प्राप्त हो सकते हैं, आगम के भी माने जा सकते हैं; क्योंकि अध्यात्म आगम का ही एक अंग है और आत्मा भी छह द्रव्यों में से ही एक द्रव्य है, परन्तु आगम के सभी नय अध्यात्म पर भी घटित हों - यह आवश्यक नहीं है।
समस्त लोकालोक को अपने में समेट लेने से आगम का क्षेत्र विस्तृत है और उसकी प्रकृति भी विस्तार में जाने की है। मात्र आत्मा तक सीमित होने तथा अपने में ही सिमटने की प्रकृति होने से अध्यात्म के नयों में भेद-प्रभेदों का विस्तार वैसा नहीं पाया जाता, जैसा कि आगम के नयों में पाया जाता है।
आगम फैलने की और अध्यात्म अपने में ही सिमटने की प्रक्रिया का नाम है।
-परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-१७८