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प्रवचनसार गाथा १२९ वस्तुस्वरूप को स्पष्ट करने के लिए द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार में छह द्रव्यों का वर्गीकरण अनेकप्रकार से किया गया है, जिसमें अभीतक जीव-अजीव और लोक-अलोक की चर्चा हुई; अब इस गाथा में क्रियावान और भाववान की बात करते हैं।
गाथा मूलत: इसप्रकार है - उप्पादट्ठिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स । परिणामा जायंते संघादादो व भेदादो ।।१२९।।
(हरिगीत) जीव अर पुद्गलमयी इस लोक में परिणमन से ।
भेद से संघात से उत्पाद-व्यय-ध्रुवभाव हों ।।१२९।। पुद्गल-जीवात्मक लोक के परिणाम से और संघात व भेद से उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय होते हैं।
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"द्रव्यों में इस अपेक्षा भी भेद पड़ता है कि कुछ द्रव्य भाव और क्रियावाले हैं; पर कुछ द्रव्य मात्र भाववाले ही हैं। पुद्गल और जीव भाववाले भी हैं और क्रियावाले भी हैं; क्योंकि वे परिणाम द्वारा और भेद व संघात द्वारा उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। शेष द्रव्य मात्र भाववाले ही हैं; क्योंकि वे परिणाम के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं; टिकते हैं और नष्ट होते हैं - ऐसा निश्चय है।
इनमें भाव का लक्षण परिणाम है और क्रिया का लक्षण परिस्पन्द (कम्पन) है। भाववाले तो सभी द्रव्य हैं; क्योंकि परिणामस्वभाववाले होने से परिणाम के द्वारा अन्वय और व्यतिरेकों को प्राप्त होते हुए वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं।
पुद्गल भाववाले होने के साथ-साथ क्रियावाले भी हैं; क्योंकि
गाथा-१२९
१७९ परिस्पदंस्वभाववाले होने से परिस्पन्द के द्वारा पृथक् पुद्गल एकत्रित हो जाते हैं और मिले हुए पुद्गल फिर पृथक् हो जाते हैं; इस अपेक्षा वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट हो जाते हैं। जीव भी भाववाले होने के साथसाथ क्रियावाले भी होते हैं; क्योंकि परिस्पन्दस्वभाववाले होने से परिस्पंद के द्वारा नवीन कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलों से भिन्न जीव उनके साथ एकत्रित होने से और कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलों के साथ एकत्रित हुए जीव बाद में पृथक् होने की अपेक्षा से वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं।" ___यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यहाँ लोक को जीव-पुद्गलात्मक ही क्यों लिखा है; वह तो षड्द्रव्यात्मक है। ___इस प्रश्न का उत्तर आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में यह कहते हुए देते हैं कि लोक तो षड्द्रव्यात्मक ही है, यहाँ उपलक्षण से जीवपुद्गलात्मक कह दिया है। इस वर्गीकरण को आचार्य जयसेन सक्रिय
और निष्क्रिय द्रव्यों के रूप में भी प्रस्तुत करते हैं। साथ में यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि जीव और पुद्गलों की अर्थ और व्यंजन - दोनों पर्यायें होती हैं; शेष द्रव्यों की मात्र अर्थपर्यायें ही होती हैं।
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि अर्थपर्यायें प्रतिसमय परिणमनरूप होती हैं और जब जीव इस शरीर को त्याग कर दूसरे भव में शरीर को ग्रहण करता है तो विभावव्यजंनपर्यायें होती हैं। इसीप्रकार पुद्गलों में भी विभावव्यंजनपर्यायें होती हैं। इसीकारण जीव व पुद्गल को सक्रिय द्रव्य कहा जाता है।
मुक्त जीवों के स्वभावव्यजंनपर्याय होती है; क्योंकि उनके भेद ही होता है, संघात नहीं।
उक्त गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी २ दोहे और १ मनहरण - इसप्रकार ३ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं। सभी मूलतः पठनीय
नमूने के तौर पर एक छन्द प्रस्तुत है
(मनहरण कवित्त ) क्रियावंत भाववंत ऐसे दोय भेदनि तैं,