Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 95
________________ प्रवचनसार अनुशीलन १८२ रहने की योग्यता स्वयं के कारण ही धारण करते हैं । ज्ञेयों का ऐसा स्वतंत्र स्वभाव है । ज्ञेय का ऐसा यथार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान का कारण है। परिणमन शक्ति और क्रियावती शक्ति ज्ञेयों का स्वभाव ही है - ऐसा निर्णय करने से अनादिकाल से परपदार्थों को हिलाने-चलानेपरिणमन कराने और परपदार्थ हो तो अपने में परिणाम हो - इत्यादि विपरीत मान्यताएँ नष्ट हो जाती हैं और इस सच्चे ज्ञान से धर्मदशा उत्पन्न होती है।" उक्त गाथा में यह बताया गया है कि जीव और पुद्गल द्रव्यों को छोड़कर शेष चारों द्रव्यों में क्षेत्र से क्षेत्रान्तर गमनरूप क्रिया नहीं होती । जिसमें कालद्रव्य निमित्त होता है, ऐसी परिणमनरूप क्रिया तो सभी छह द्रव्यों में होती है; पर जिसमें धर्मद्रव्य निमित्त होता है, ऐसी क्षेत्र से क्षेत्रान्तररूप गमन क्रिया और जिसमें अधर्मद्रव्य निमित्त होता है - ऐसी गमनपूर्वक ठहरनेरूप क्रिया जीव और पुद्गलों में ही होती है । इसी कारण जीव और पुद्गलों को सक्रिय द्रव्य कहते हैं । उक्त क्रिया के अभाव में शेष द्रव्यों को निष्क्रिय द्रव्य कहा जाता है। परिणमनरूप क्रिया तो सभी द्रव्यों में होती ही है, पर उसके कारण किसी भी द्रव्य को सक्रिय या निष्क्रिय नहीं कहा जा सकता। सभी द्रव्यों में एक भाववती शक्ति है, जिसके कारण परिणमनरूप क्रिया होती है तथा जीव और पुद्गलों में भाववती शक्ति के साथ-साथ क्रियावती शक्ति भी है, जिसके कारण परिस्पन्द अर्थात् क्षेत्र से क्षेत्रान्तर गमनरूप, हलन चलनरूप क्रिया होती है। कालद्रव्य, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य तो मात्र निमित्त होते हैं; परिणमनरूप क्रिया और परिस्पन्दरूप क्रिया तो भाववती और क्रियावती शक्ति के कारण होती है । ज्ञेयतत्त्व का ऐसा स्वरूप समझने से चित्त में स्वाधीनता कामवाद होता है। · प्रवचनसार गाथा १३०-१३१ विगत गाथाओं में द्रव्यों को जीव-अजीव, लोक- अलोक और क्रियावान-भाववान के रूप में प्रस्तुत किया गया है और अब आगामी दो गाथाओं में उन्हें मूर्त और अमूर्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं लिंगेहिं जेहिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णादं । तेऽतब्भावविसिट्टा मुत्तामुत्ता गुणा णेया ॥ १३० ॥ मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा । दव्वाणममुत्ताणं गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा ।। १३१ ।। ( हरिगीत) जिन चिह्नों से द्रव ज्ञात हों रे जीव और अजीव में । वे मूर्त और अमूर्त गुण हैं अतद्भावी द्रव्य से ।। १३० ।। इन्द्रियों से ग्राह्य बहुविधि मूर्त्त गुण पुद्गलमयी । अमूर्त हैं जो द्रव्य उनके गुण अमूर्त्तिक जानना । । १३१ । । जिन लिंगों से द्रव्य जीव और अजीव के रूप में ज्ञात होते हैं; वे अतद्भाव विशिष्ट मूर्त-अमूर्त गुण जानने चाहिए। जो इन्द्रियों से ग्रहण किये जाते हैं ऐसे मूर्तगुण पुद्गलद्रव्यात्मक हैं और वे अनेकप्रकार के हैं और अमूर्त द्रव्यों के गुण अमूर्त जानना चाहिए। इन गाथाओं के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"पर के आश्रय के बिना स्वद्रव्य का आश्रय लेकर प्रवर्तमान होने से जिनके द्वारा द्रव्य लिंगित होता है, पहिचाना जाता है; उन लिंगों को गुण कहते हैं। 'जो द्रव्य हैं, वे गुण नहीं हैं और जो गुण हैं, वे द्रव्य नहीं हैं' - इस अपेक्षा से द्रव्य से अतद्भाव के द्वारा वे गुण विशिष्ट वर्तते हुए; लिंग और लिंगी के रूप में प्रसिद्धि के समय द्रव्य के लिंगत्व को प्राप्त होते हैं। वेलिंग या गुण द्रव्यों में 'ये जीव हैं और ये अजीव हैं' - ऐसा भेद उत्पन्न करते हैं; क्योंकि स्वयं ही तद्भाव के द्वारा विशिष्ट होने से विशेष

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