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प्रवचनसार अनुशीलन सकता है और शब्द को परिणमित करा सकता है। इसप्रकार आत्मा अज्ञान से शब्दों का कर्ता होता है। सत्य ज्ञान करने पर पुद्गल की पर्याय का कर्ता आत्मा नहीं है, अपितु ज्ञाता है - ऐसा निर्णय करने से शब्द के कर्तृत्व का अभिमान मिट जाता है और स्वयं ज्ञाता रहता है। ___ जीव भ्रमवश निन्दा-प्रशंसा के शब्दों के कारण राग-द्वेष करता था। वह मानता था कि अमुक शब्द आत्मा को सुखकर्ता हैं और अमुक शब्द आत्मा को दुखकर्ता हैं; परन्तु कैसे भी शब्द हों, वे तो पुद्गल की पर्याय हैं, ज्ञेय हैं और आत्मा उनका ज्ञाता है - ज्ञेयतत्त्व का ऐसा सच्चा ज्ञान होने पर, एकत्वबुद्धि के राग-द्वेष का अभाव होकर अपने में शान्ति प्रगट होती है और वही धर्म है।
यह तो ज्ञेय अधिकार है। शब्द तो पुद्गल की अवस्था है और वह एक ज्ञेय है। उस अवस्था को करना या उससे सुख-दुःख मानना आत्मा का कर्तव्य नहीं है; परन्तु उसको ज्ञेयरूप से जान लेना ही आत्मा का कर्तव्य है और यही धर्म है।"
मूल गाथा में तो मात्र इतना ही कहा है कि चाहे इन्द्रियों के माध्यम से पकड़ में आवे या नहीं आवे, सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल सभी पुद्गलों में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण - ये चार गुण अवश्य पाये जाते हैं। ये गुण पुद्गल की पहिचान के चिह्न हैं, स्वरूप हैं, लक्षण हैं।
यद्यपि शब्द कर्णेन्द्रिय के विषय हैं; तथापि शब्द पुद्गल के गुण नहीं हैं; अपितु भाषावर्गणारूप अनेक पुद्गलों की मिली हुई समानजातीय द्रव्यपर्याय है।
कतिपय भारतीय दर्शनों में शब्द को आकाश का गुण माना गया है। अत: मतार्थ की दृष्टि से टीकाकारों ने सयुक्ति सिद्ध किया है कि शब्द किसी अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं है; क्योंकि शब्द कर्ण इन्द्रिय का विषय बनता है। यदि शब्द आकाश का गुण होता तो गुणी आकाश को भी १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३०
गाथा-१३२
१९३ कर्ण इन्द्रिय का विषय बनना चाहिए; क्योंकि गुण और गुणी के प्रदेश अभिन्न होते हैं। ___ साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि शब्द अमूर्त आकाशादि द्रव्यों का गुण तो है ही नहीं; साथ ही वह मूर्त पुद्गल का भी गुण नहीं है, पर्याय है; क्योंकि शब्द अनित्य होते हैं । गुण अनित्य नहीं होते, नित्य ही होते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि शब्द अकेले कर्ण इन्द्रिय का विषय क्यों है, पाँचों इन्द्रियों का विषय क्यों नहीं; उनसे कहते हैं कि स्पर्शादि गुण भी तो एक-एक इन्द्रियों के ही विषय हैं, सभी इन्द्रियों के नहीं; तो फिर शब्द ही क्यों सभी इन्द्रियों का विषय बनें?
टीकाओं में उक्त बातों को अनेक युक्तियों और उदाहरणों से सिद्ध किया गया हैजिनमें चन्द्रकान्त मणि, अरणि एवं जौ के उदाहरण मुख्य हैं। ___स्पर्शादि गुण मूर्तद्रव्य पुद्गल के गुण हैं - यह बात तो निर्विवाद है; अत: इस पर तो विशेष कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है, किन्तु शब्दों के बारे में विवाद है, अनेक मत हैं; इसकारण उनकी चर्चा विस्तार से की गई है।
वैराग्यवर्धक बारह भावनाएँ मुक्तिपथ का पाथेय तो हैं ही, लौकिक जीवन में भी अत्यन्त उपयोगी हैं। इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोगों से उत्पन्न उद्वेगों को शान्त करनेवाली ये बारह भावनाएँ व्यक्ति को विपत्तियों में धैर्य एवं सम्पत्तियों में विनम्रता प्रदान करती हैं, विषय-कषायों से विरक्त एवं धर्म में अनुरक्त रखती हैं, जीवन के मोह एवं मृत्यु के भय को क्षीण करती हैं, बहुमूल्य जीवन के एक-एक क्षण को आत्महित में संलग्न रह सार्थक कर लेने को निरन्तर प्रेरित करती हैं; जीवन के निर्माण में इनकी उपयोगिता अंसदिग्ध है। - बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ