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द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार
(गाथा १२७से गाथा १४४ तक) द्रव्यसामान्य का प्रज्ञापन करने के उपरान्त अब द्रव्यविशेषप्रज्ञापनअधिकार आरंभ करते हैं। उक्त दोनों अधिकारों की संधि को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र एक छन्द लिखते हैं, जो इसप्रकार है -
(अनुष्टुप् ) द्रव्यसामान्यविज्ञाननिम्नं कृत्वेति मानसम् । तद्विशेषपरिज्ञानप्राग्भारः क्रियतेऽधुना ।।९।।
(दोहा) अरे द्रव्य सामान्य का अबतक किया बखान ।
अब तो द्रव्यविशेष का करते हैं व्याख्यान ।।९।। इसप्रकार द्रव्यसामान्य के ज्ञान से मन को गंभीर करके अब द्रव्यविशेष के परिज्ञान का आरंभ किया जाता है।
द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार में सभी द्रव्यों में प्राप्त होनेवाली सामान्य विशेषताओं को समझाया है और अब द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार में गाथा १२७ से १४४ तक अर्थात् १८ गाथाओं में द्रव्यों के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप स्पष्ट करेंगे।
प्रवचनसार गाथा १२७ द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार में सर्वप्रथम 'जीव और अजीव द्रव्य के भेद से द्रव्य दो प्रकार के होते हैं' - यह बतलाते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - दव्वं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवओगमओ। पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि य अजीवं ।।१२७।।
(हरिगीत) द्रव्य जीव अजीव हैं जिय चेतना उपयोगमय । पुद्गलादी अचेतन हैं अत:एव अजीव हैं ।।१२७।।
गाथा-१२७
१७१ द्रव्य जीव और अजीव हैं। उनमें चेतना और उपयोगमय जीव हैं और पुद्गलादि अचेतन द्रव्य अजीव हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __"इस लोक में एकत्व के कारणभूत द्रव्यत्वसामान्य को छोड़े बिना ही, विशेष लक्षणों के सद्भाव के कारण एक-दूसरे से पृथक् किये जाने पर द्रव्य जीवत्व और अजीवत्वरूप विशेष को प्राप्त होते हैं। उनमें जीव का तो 'आत्मद्रव्य' ऐसा एक ही प्रकार है और अजीव के पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य - ये पाँच प्रकार हैं।
इनमें जीव का विशेष लक्षण चेतना-उपयोगमयत्व है और अजीव का विशेष लक्षण अचेतनत्व है।
स्वधर्मों में व्याप्त होने से स्वरूपरूप से प्रकाशित होती हुई, अविनाशी, भगवती, संवेदनरूप चेतना के द्वारा तथा चेतनापरिणामलक्षण द्रव्यपरिणतिरूप उपयोग के द्वारा जिसमें निष्पन्नपना अवतरित प्रतिभासित होता है; वह जीव है और जिसमें उपयोग के साथ रहनेवाली यथोक्त चेतना का अभाव होने से बाहर तथा भीतर अचेतनपना अवतरित प्रतिभासित होता है; वह अजीव है।"
आचार्य जयसेन उक्त गाथा के भाव को यद्यपि आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही स्पष्ट करते हैं; तथापि उक्त बात को नयविभाग से स्पष्ट कर देते हैं। उक्त गाथा के भाव को वृन्दावनदासजी इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(मनहरण कवित्त) सत्तारूपदर्वदोय भांति है अनादि सिद्ध,
जीव औअजीव यहीसाधी श्रुतिमंथ है। तामें जीव लच्छन विलच्छन है चेतनता,
जासको प्रकाश अविनाशी पुंज पंथ है।। ताही को प्रवाह ज्ञान दर्शनोपयोग दोय,
सामान्य विशेष वस्तु जानिवे तैं कंथ है। पुग्गल-प्रमुख दर्व अजीव अचेतन हैं,
ऐसे वृन्द भाषी कुन्दकुन्द निरगंथ हैं।।३।।