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प्रवचनसार गाथा १२६
यह गाथा द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार के उपसंहार की गाथा है। इसकी उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि इसप्रकार ज्ञेयपने प्राप्त आत्मा की शुद्धता के निश्चय से ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि होती है; इसप्रकार उसका अभिनन्दन करते हुए द्रव्यसामान्य के वर्णन का उपसंहार करते हैं।
आत्मा ज्ञानरूप भी है और ज्ञेयरूप भी है। ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन में आत्मा के ज्ञानस्वभाव को स्पष्ट किया गया है और यहाँ उसके ज्ञेयस्वभाव को समझाया जा रहा है।
यहाँ इस द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार में आत्मा के ज्ञेयत्व के सामान्य स्वरूप को बताया है । आगे के द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार में अन्य द्रव्यों के साथ-साथ आत्मा के ज्ञेयत्व के विशेष स्वरूप को समझायेंगे ।
इस उपसंहार की गाथा में तो मात्र यह बताते हैं कि आत्मा के ज्ञेयतत्त्व के निश्चय से ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्ध आत्मा की उपलब्धि होती है ।
गाथा मूलतः इसप्रकार है -
कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं । । १२६ ।। ( हरिगीत ) जो श्रमण निश्चय करे कर्ता करम कर्मरु कर्मफल ।
ही जीव ना पररूप हो शुद्धात्म उपलब्धि करे ।। १२६ ।। 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है' - ऐसा निश्चयवाला होता हुआ श्रमण यदि अन्यरूप परिणमित ही न हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
गाथा - १२६
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" इसप्रकार जो पुरुष - 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है' - यह निश्चय करके परद्रव्यरूप परिणमित नहीं होता; वही पुरुष जिसका परद्रव्य के साथ संपर्क रुक गया है और जिसकी पर्यायें स्वद्रव्य के भी भीतर प्रलीन हो गई हैं ऐसे शुद्धात्मा को उपलब्ध करता है; अन्य कोई पुरुष ऐसे शुद्धात्मा को उपलब्ध नहीं करता ।
अब इसी बात को स्पष्टरूप से विशेष समझाते हैं -
जब जवाकुसुम की निकटता से उत्पन्न हुए उपराग (लालिमा) से रंजित परिणतिवाले स्फटिक मणि के समान अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्म की बन्धनरूप उपाधि की निकटता से उत्पन्न उपराग से रंजित परिणतिवाला मैं पर के द्वारा आरोपित विकारवाला होने से संसारी था; तब भी मेरा कोई संबंधी नहीं था ।
मैं अकेला ही कर्ता था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभाव से स्वतंत्र था; मैं अकेला ही करण था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभाव के द्वारा साधकतम था; मैं अकेला ही कर्म था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप परिणमित होने के स्वभाव के कारण आत्मा से प्राप्य अर्थात् प्राप्त होने योग्य था और मैं अकेला ही सुख से विपरीत लक्षणवाला दुख नामक कर्मफल था, जो कि उपरक्त चैतन्यरूप परिणमित होने के स्वभाव से उत्पन्न किया जाता था ।
और अब जवाकुसुम की निकटता के नाश से सुविशुद्ध सहजरूप परिणतिवाले स्फटिक मणि के समान अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्म की बंधनरूप उपाधि की निकटता के नाश से सुविशुद्ध सहज स्वपरिणतिवाला मैं पर के द्वारा आरोपित विकार रुक जाने से एकान्ततः मुमुक्षु हूँ और अभी भी मेरा कोई संबंधी नहीं है।
अब भी मैं अकेला ही कर्ता हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्यरूप स्वभाव से स्वतंत्र हूँ; मैं अकेला ही करण हूँ; क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्यरूप स्वभाव से साधकतम हूँ; मैं अकेला ही कर्म हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्यरूप परिणमित होने के