________________
गाथा-१२५
१५९
प्रवचनसार अनुशीलन ३. जब जीव आकुलता के फलस्वरूप अथवा शांति के फलरूप परिणमित होता है, तब चेतना उसमय अर्थात् आकुलतामय अथवा शांतिमय होती है। चेतना उस फल से पृथक् नहीं होती।
यह आत्मा परपदार्थों से पृथक् है - ऐसा निर्णय करते ही शुद्ध द्रव्य का निर्णय होता है। परपदार्थ के सामने देखना नहीं रहा और स्वपरिणति स्वयं से होती है, उसका यथार्थ ज्ञान स्व के भान बिना नहीं हो सकता; इसतरह वास्तव में शुद्धद्रव्य के कथन में परद्रव्य के सम्पर्क का अभाव है।
आत्मा अनंत शक्तियों का पिण्ड है; परद्रव्य के सम्पर्क का अभाव होने से अनंत गुणों का परिणमन उस आत्मा का स्वयं का है - ऐसा निर्णय होने पर द्रव्य-गुण शुद्ध हैं, इसका ख्याल आने पर, विकारी पर्याय का लक्ष्य छूट जाता है और द्रव्य की दृष्टि होती है। द्रव्यदृष्टि होने पर विकारी पर्याय गौण होती है और अविकारी पर्याय द्रव्य के साथ अभेद होती है। यह विकारी पर्याय है और उसे दूर करके अविकारी पर्याय प्रगट करूँ - ऐसा भी नहीं रहता; क्योंकि द्रव्य तरफ एकाकार होने पर अविकारी पर्याय प्रगट होती है और वह द्रव्य के साथ अभेद होती है।२ ।
गौण-मुख्य न हो तो साधक दशा नहीं रहती, केवलज्ञान होना चाहिए। केवली भगवान को मुख्य-गौण नहीं होता, क्योंकि वीतराग को सही संपूर्ण प्रमाणज्ञान वर्तता है, किन्तु साधक दशा में मुख्य-गौण होता है; परन्तु यथार्थरूप से मुख्य-गौण कौन कर सकता है ?
जो जीव ऐसा मानता है कि पर्याय अर्थात् अंश वह अंशी का है, पर के कारण नहीं। ध्रुव सामान्य है और उत्पाद व व्यय सामान्य केही विशेष हैं - इसप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों की अखण्डता का यथार्थ ज्ञान इस प्रवचनसार में कहा है - ऐसा यथार्थ ज्ञान करें तो वही जीव समयसार में कहे अनुसार द्रव्यदृष्टि करने के लिए अवस्था के राग-द्वेष को गौण १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-४०५ २. वही, पृष्ठ-४०७-४०८
करता है और द्रव्य-गुण शुद्ध हैं, उसकी दृष्टि करता है और यह दृष्टि होने पर निर्मलतारूप पर्याय प्रगट होती है, यह आत्मा के साथ अभेद होती है। यह द्रव्य है और यह शुद्ध पर्याय है - ऐसा भेद भी नहीं रहता।
इसतरह पर्याय द्रव्य के अंदर अत्यंत लीन हो जाने से आत्मा शुद्ध द्रव्य ही रहता है।"
इसप्रकार इस गाथा में यह बात स्पष्ट की गई है कि यहाँ स्वद्रव्यपरद्रव्य की पृथकता के संदर्भ में स्व के द्रव्य-गुण-पर्याय 'स्व' में और पर के द्रव्य-गुण-पर्याय 'पर' में शामिल होते हैं। अपने गुण-पर्याय भी पर हैं - ऐसी बात यहाँ नहीं है।
समयसार में गुणभेद, प्रदेशभेद और पर्यायों को पर कहकर उनसे भिन्न स्वद्रव्य को शुद्धद्रव्य कहा जाता है और यहाँ अपने गुण-पर्याय सहित द्रव्य को ही शुद्ध द्रव्य कहा गया है।
यहाँ पर जो स्व-पर भेदविज्ञान करना है, वह इसप्रकार का ही है कि स्वद्रव्य-गुण-पर्याय 'स्व' एवं परद्रव्य-गुण-पर्याय 'पर'।
यही कारण है कि यहाँ अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है कि आत्मा परिणामात्मक है; इसकारण ज्ञानरूप परिणमन, कर्मरूप परिणमन और कर्मफलरूप परिणमन आत्मा ही है और अन्त में तो यहाँ तक लिख दिया है कि शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य का संपर्क असंभव है और अपनी पर्यायें अपने में समा गई हैं; इसकारण आत्मा शुद्ध ही है, शुद्ध ही रहता है।
समयसार और प्रवचनसार की कथनपद्धति में मूलभूत अन्तर यह है कि समयसार आत्मानुभव की दृष्टि से मात्र निज त्रिकाली ध्रुव आत्मा को ही निज में शामिल करता है और प्रवचनसार वस्तुस्वरूप की मुख्यता से अपने द्रव्य, गुण और पर्यायें - इन तीनों को 'स्व' में शामिल करता है।
यहाँ इस बात का ध्यान सदा रखना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो सकते हैं, मतभेद खड़े हो सकते हैं।
जहाँ जो बात जिस अपेक्षा से कही गई है, वहाँ वही अपेक्षा लगाकर समझने का प्रयत्न करना चाहिए। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-४०८-४०९