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गाथा-९९
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प्रवचनसार अनुशीलन परिणाम अपने अवसर में स्व-रूप से उत्पन्न और पूर्व-रूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एकप्रवाहपने द्वारा अनुत्पन्नअविनष्ट होने से उत्पत्ति-संहार-ध्रौव्यात्मक हैं।
जिसप्रकार वास्तु का छोटे से छोटा अंश पूर्वप्रदेश के विनाशस्वरूप है, बाद के प्रदेश के उत्पादस्वरूप है तथा परस्पर अनुस्यूति से रचित एक वास्तुपने अनुभयस्वरूप है। उसीप्रकार प्रवाह का छोटे से छोटा अंश पूर्वपरिणाम के विनाशस्वरूप है, बाद के परिणाम के उत्पादस्वरूप है तथा परस्पर अनुस्यूति से रचित एकप्रवाहपने अनुभयस्वरूप है।
इसप्रकार स्वभाव से ही विलक्षण परिणामपद्धति में प्रवर्त्तमान द्रव्य, स्वभाव का अतिक्रम नहीं करता; इसलिए सत्त्व को त्रिलक्षण ही अनुमोदना चाहिए - मोतियों के हार की भाँति।
जिसप्रकार जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है - ऐसे लटकते हुए मोतियों के हार में, अपने-अपने स्थानों में प्रकाशित होते हुए समस्त मोतियों में, पीछे-पीछे के स्थानों में पीछे-पीछे के मोती प्रगट होते हैं और पहलेपहले के मोती प्रगट नहीं होते - इसकारण तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति का रचियता सूत्र अवस्थित होने से विलक्षणत्व प्रसिद्धि को प्राप्त होता है।
उसीप्रकार जिसने नित्यवृत्ति ग्रहण की है ऐसे परिणमित द्रव्य में, अपने-अपने अवसरों में प्रकाशित (प्रगट) होते हुए समस्त परिणामों में, पीछे-पीछे के अवसरों पर पीछे-पीछे के परिणाम प्रगट होते हैं और पहलेपहले के परिणाम नहीं प्रगट होते हैं - इसकारण तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचनेवाला प्रवाह अवस्थित होने से त्रिलक्षणपना प्रसिद्धि को प्राप्त होता है।"
यहाँ यह कहा गया है कि जिसप्रकार द्रव्य के विस्तार का छोटे से छोटा अंश प्रदेश है; उसीप्रकार द्रव्य के प्रवाह का छोटे से छोटा अंश परिणाम है।
प्रत्येक परिणाम स्व-काल में अपने रूप से उत्पन्न होता है, पूर्व-रूप से नष्ट होता है और सर्व परिणामों में एकप्रवाहपना होने से प्रत्येक परिणाम
उत्पाद-विनाश से रहित एकरूप ध्रुव रहता है।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य में समय-भेद नहीं है, तीनों ही एक ही समय में हैं - ऐसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणामों की परम्परा में द्रव्य, स्वभाव से ही सदा रहता है; इसलिए द्रव्य स्वयं भी उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक है। __आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को मुक्तात्मा (सिद्धजीव) पर घटित करके समझाते हैं । अन्त में लिख देते हैं कि जिसप्रकार यह परमात्म द्रव्य एक समय में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप से परिणमित होता हुआ ही सत्तालक्षणवाला कहा गया है; उसीप्रकार सभी द्रव्य एक ही समय में उत्पादादिरूप से परिणमित होते हुए सत्तालक्षणवाले हैं - यह अर्थ है। __कविवर वृन्दावनदासजी भी इस गाथा के भाव को बड़े ही विस्तार से छन्दोबद्ध करते हैं । वे इस संदर्भ में बड़े-बड़े ७ छन्द लिखते हैं; जो मूलतः पठनीय हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यहाँ प्रदेशों का विस्तारक्रम क्षेत्र-अपेक्षा से है और परिणामों का प्रवाहक्रम परिणमन-अपेक्षा से है। यहाँ क्षेत्र का दृष्टान्त देकर आचार्यदेव परिणामों का स्वरूप समझाना चाहते हैं।'
प्रवाहक्रम कहने से समस्त परिणामों का क्रम व्यवस्थित ही है, कोई भी परिणाम अर्थात् कोई भी पर्याय आगे-पीछे नहीं होती । इस प्रतीति में ही द्रव्यदृष्टि और वीतरागता है।
जितने एक द्रव्य के परिणाम, उतने ही तीन काल के समय होते हैं और जितने तीन काल के समय, उतने ही एक द्रव्य के परिणाम होते हैं। बस ! इतना निश्चित करे तो अपने ज्ञायकपने की प्रतीति हो जाये।' ___अहा ! देखो तो ! क्रमबद्धपर्याय के निर्णय में कितनी गंभीरता है ! १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-१३९ २. वही, पृष्ठ-१३९ ३. वही, पृष्ठ-१४४