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प्रवचनसार अनुशीलन व्यय भी सत् है एवं ध्रौव्य भी सत् है। जो सत्ता उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य - इन तीनों में व्याप्त है, वही सत्ता द्रव्य में व्याप्त है।
हम कहते हैं कि ज्ञान का अस्तित्व है, दर्शन का अस्तित्व है; इसप्रकार अनंत गुणों का अस्तित्व है । यह ऐसी विचित्र बात है कि अनंत का अस्तित्व होकर भी सम्पूर्ण अस्तित्व मिलाकर एक ही है।
गुरुदेवश्री ने ४७ शक्तियों को समझाते हुए यह कहा है कि सत्तागुण का रूप सब में है। जिसकी वजह से वह सब में है। सत्ता तो स्वयं से सत्तास्वरूप है, परन्तु शेष सभी गुणों में सत्ता का रूप होने से वे भी सत्तास्वरूप हैं। ज्ञान का अस्तित्व है, चारित्र का अस्तित्व है। उनमें अस्तित्व गुण का रूप होने से सभी गुणों का अस्तित्व है।
सब द्रव्यों में सत्ता नामक गुण पृथक्-पृथक् हैं; परंतु आत्मा के सभी गुणों में सत्ता नामक एक ही गुण है । आत्मा की सभी पर्यायों में एक ही सत्ता गुण है।
स्वरूपास्तित्व नामक जो सत्ता है, वह एक ही है। वह हमारे सम्पूर्ण द्रव्य, गुणों और पर्यायों में व्याप्त होती है; लेकिन सादृश्यास्तित्वरूप महासत्ता सभी द्रव्यों में व्याप्त है। वह एक नहीं है, अनेक है। आचार्य ने जाति के अपेक्षा उसे एक है - ऐसा कहा है।
एक द्रव्य के दो गुणों के मध्य अतद्भाव होता है; परन्तु दो द्रव्यों के मध्य अतद्भाव नहीं होता, अत्यंताभाव होता है। जिसमें द्रव्य-क्षेत्रकाल और भावरूप चतुष्टय भिन्न-भिन्न हों, उसे अत्यंताभाव कहते हैं।
एक द्रव्य की पर्यायों के मध्य परस्पर अतद्भाव होता है और गुणों के मध्य भी परस्पर अतद्भाव होता है। द्रव्य और गुण के मध्य भी परस्पर अतद्भाव होता है और गुण और पर्याय के मध्य भी परस्पर अतद्भाव होता है । द्रव्य और पर्याय के मध्य भी अतद्भाव होता है; परंतु दो द्रव्यों के मध्य अत्यंताभाव होता है। ___ इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि एक द्रव्य के द्रव्य-गुण-पर्यायों के बीच परस्पर अतद्भाव है और दो द्रव्यों के बीच अत्यन्ताभाव होता है।
प्रवचनसार गाथा १०७ विगत गाथा में प्रदेशभेदवाले पृथक्त्व और अतद्भाववाले अन्यत्व का स्वरूप स्पष्ट किया गया है; अब इस १०७वीं गाथा में अतद्भाव को विस्तार से सोदाहरण स्पष्ट करते हैं; जो इसप्रकार है -
सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेच य पजओ त्ति वित्थारो। जो खलु तस्स अभावो सो तदभावो अतब्भावो।।१०७।।
(हरिगीत) सत् द्रव्य सत् गुण और सत् पर्याय सत् विस्तार है।
तदरूपता का अभावही तद्-अभावअर अतद्भाव है।।१०७।। सत द्रव्य, सत् गण और सत् पर्याय - इसप्रकार सत्ता गण का विस्तार है। इनमें जो उसका अभाव अर्थात् उसरूप होने का अभाव है; वह तद्-अभाव अर्थात् अतद्भाव है।
इस गाथा का भाव आचार्य अमतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जिसप्रकार एक मोतियों की माला हार के रूपमें, धागों के रूप में और मोती के रूप में - इसप्रकार तीन प्रकार से विस्तारित की जाती है; उसीप्रकार एक द्रव्य का सत्ता गुण सत् द्रव्य, सत् गुण और सत् पर्याय - इसप्रकार तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है।
जिसप्रकार एक मोतियों की माला का सफेदी गुण; सफेद हार, सफेद धागे और सफेद मोती के रूप में तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है; उसीप्रकार एक द्रव्य का सत्ता गुण सत् द्रव्य, सत् गुण और सत् पर्याय - ऐसे तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है।
जिसप्रकार एक मोतियों की माला में जो सफेदी नामक गुण है; वह हार नहीं है, धागा नहीं है, मोती नहीं है और जो हार, धागा या मोती है, वह सफेदी गुण नहीं है - इसप्रकार एक-दूसरे में जो उसका अभाव