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गाथा-११५
प्रवचनसार अनुशीलन (मनहरण कवित्त) आपनीचतुष्टैदर्व-क्षेत्र-काल-भावकरि,
तिहूँकालमाहिं दरव अस्तितसरूप है। सोई परद्रव्य के चतुष्टै करि नास्ति सदा,
फेर सोई एकै काल उभैरूप भूप है।। एकै काल नाहिं जात कह्यो तातें अकथ है,
फेर सोई अस्ति अवक्तव्य सु अनूप है। फेरनास्ति अकथ औअस्तिनास्ति अकथ है,
कथंचितवानी सो सुधारस को कूप है ।।७५।। प्रत्येक द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप चतुष्टय की अपेक्षा त्रिकाल अस्तिरूप है और वही द्रव्य परद्रव्य के द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भावरूप परचतुष्टय की अपेक्षा सदा नास्तिरूप है; वही द्रव्य दोनों की अपेक्षा सदा एकसाथ उभय (अस्ति-नास्ति) रूप है।
एक काल में एकसाथ कहा नहीं जा सकता - इसकारण अवक्तव्य है। इसीप्रकार वही द्रव्य अस्ति-अवक्तव्यरूप, नास्ति-अवक्तव्यरूप
और अस्ति-नास्ति-अवक्तव्यरूप भी है। यह कथंचित्वाणी अर्थात् स्याद्वादवाणी का अमृतकूप है।
पण्डित देवीदासजी उक्त सप्तभंगी को एक इकतीसा सवैया में ठीक इसीप्रकार स्पष्ट कर देते हैं।
इसीप्रकार स्वामीजी भी इस गाथा के भाव को सोदाहरण विस्तार से स्पष्ट कर देते हैं; जो मूलत: पठनीय है।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि सप्तभंगी दो प्रकार की होती है - प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी। नयसप्तभंगी में अपेक्षा स्पष्ट कर दी जाती है और प्रमाणसप्तभंगी में अपेक्षा स्पष्ट न करके उसके स्थान पर स्यात् या कथंचित् पद का प्रयोग किया जाता है।
उपर्युक्त सप्तभंगी नयसप्तभंगी है; क्योंकि उसमें अपेक्षा स्पष्ट कर दी गई है कि स्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है आदि ।
आचार्य जयसेन इस गाथा की टीका में स्पष्ट लिखते हैं कि यह नयसप्तभंगी है। वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि पंचास्तिकाय की १४वीं गाथा की टीका में 'स्यादस्ति' आदि प्रमाण वाक्यों द्वारा प्रमाणसप्तभंगी बताई गई है।
नयसप्तभंगी में ‘एव' अर्थात् 'ही' शब्द का प्रयोग होता है और प्रमाणसप्तभंगी में भी' शब्द का प्रयोग होता है।
वस्तु किसी अपेक्षा सत् भी है और किसी अपेक्षा असत् भी है - यह प्रमाण सप्तभंगी के प्रयोग हैं और स्वरूप की अपेक्षा सत् ही है और पररूप की अपेक्षा असत् ही है - यह नयसप्तभंगी के प्रयोग हैं।
बिना अपेक्षा बताये 'ही' शब्द का प्रयोग करना दुर्नयसप्तभंगी है। स्याद् या कथंचित् लगाये बिना ही 'भी' लगाना दुष्प्रमाणसप्तभंगी है।
आचार्य जयसेन लिखते हैं कि 'द्रव्य है' - यह दुष्प्रमाणसप्तभंगी है और 'द्रव्य है ही' - यह दुर्नयसप्तभंगी है।
वस्तुस्वरूप समझने और समझाने के लिए सप्तभंगी न्याय जैनदर्शन का अद्भुत अनुसंधान है, अनुपम निधि है । जैनदर्शन के मर्म को समझने के लिए इस सप्तभंगी न्याय को समझना न केवल अत्यन्त आवश्यक है, अपितु अनिवार्य है।
सप्तभंगी का स्वरूप गहराई से समझने के लिए लेखक की अन्य कति परमभावप्रकाशक नयचक्र के सप्तभंगी नामक छटवें अध्याय का अध्ययन बारीकी से करना चाहिए।
यहाँ उसकी चर्चा विस्तार से करना सम्भव नहीं है। १. पंचास्तिकाय, गाथा १४ की तात्पर्यवृत्ति टीका
अपने में अपनापन आनन्द का जनक है, परायों में अपनापन आपदाओं का घर है: यही कारण है कि अपने में अपनापन ही साक्षात् धर्म है और परायों में अपनापन महा अधर्म है। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ