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गाथा-११९
प्रवचनसार गाथा ११९ अब इस गाथा में यह बताते हैं कि जीवद्रव्य द्रव्यरूप से अवस्थित होने पर भी पर्यायरूप से अनवस्थित है।
गाथा मूलत: इसप्रकार हैजायदिणेवणणस्सदिखणभंगसमुब्भवेजणे कोई। जो हि भवो सो विलओ संभवविलय त्ति ते णाणा ।।११९ ।।
(हरिगीत) उत्पाद-व्यय नाप्रतिक्षण उत्पाद-व्ययमय लोक में।
अन-अन्य हैं उत्पाद-व्यय अर अभेद से हैं एक भी।।११९।। प्रतिक्षण उत्पाद और विनाशवाले जीव लोक में न कोई उत्पन्न होता है और न कोई नष्ट होता है; क्योंकि जो उत्पाद है, वही विनाश है। इसप्रकार वे उत्पाद तथा विनाश - एक भी हैं और अनेक भी हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यद्यपि इस लोक में न कोई जन्म लेता है और न कोई मरता है; तथापि मनुष्य, देव, तिर्यंच और नारकात्मक जीवलोक प्रतिक्षण परिणामी होने सेक्षण-क्षण में होनेवाले विनाश और उत्पाद के साथ भी जुड़ा हुआ है। ___इसमें कोई विरोध भी नहीं है; क्योंकि उद्भव और विलय में एकपना
और अनेकपना है। जब उत्पाद और विनाश के एकपने की अपेक्षा ली जावे; तब यह पक्ष फलित होता है कि न तो कोई उत्पन्न होता है और न कोई नष्ट होता है और जब उत्पाद और विनाश के अनेकपने की अपेक्षा ली जावे; तब प्रतिक्षण होनेवाले विनाश और उत्पाद का पक्ष फलित होता है।
वह इसप्रकार है - जिसप्रकार 'जो घड़ा है, वही दूंडा हैं' - ऐसा कहे जाने पर घड़े और कँडे के स्वरूप का एकपना असंभव होने से उन दोनों की आधारभूत मिट्टी प्रगट होती है; उसीप्रकार 'जो उत्पाद है, वही विनाश हैं' - ऐसा कहे जाने पर उत्पाद और विनाश के स्वरूप का
एकपना असंभव होने से उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्य प्रगट होता है; इसलिए देवपर्याय के उत्पन्न होने और मनुष्यादि पर्याय के नष्ट होने पर, 'जो उत्पाद है, वही विलय है' - इस अपेक्षा से उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्यवान जीवद्रव्य प्रगट होता है, लक्ष्य में आता है; इसलिए सर्वदा द्रव्यपने से जीव टंकोत्कीर्ण रहता है।
जिसप्रकार घड़ा अन्य है और कूडा अन्य है' - ऐसा कहे जाने पर उन दोनों की आधारभूत मिट्टी का अन्यपना असंभवित होने से घड़े का
और कँडे का भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रगट होता है; उसीप्रकार ‘उत्पाद अन्य है और व्यय अन्य है' - ऐसा कहे जाने पर, उन दोनों के आधारभूत ध्रौव्य का अन्यपना असंभवित होने से उत्पाद और व्यय का भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रगट होता है; इसलिए देवादि पर्याय के उत्पन्न होने पर और मनुष्यादि पर्याय के नष्ट होने पर, 'उत्पाद अन्य है और व्यय अन्य हैं' - इस अपेक्षा से उत्पाद और व्ययवाली देवादि पर्यायें और मनुष्यादि पर्यायें प्रगट होती हैं, लक्ष्य में आती हैं; इसलिए जीव प्रतिक्षण पर्यायों से अनवस्थित है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए नयों का प्रयोग करते हैं और निष्कर्ष के रूप में कहते हैं कि आत्मा द्रव्यार्थिकनय से नित्य होने पर भी पर्यायार्थिकनय से विनाशशील है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए वे तत्त्वप्रदीपिका में दिये गये उदाहरणों के साथ-साथ मोक्षमार्ग और मोक्षपर्याय पर भी इस बात को घटित करते हैं। इस गाथा के भाव को वृन्दावनदासजी इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(छप्पय) इमि संसार मझार दरव के द्वार जु देखा। तौ कोऊनहिं नसत न उपजत यही विशेखा।। जो परजै उतपाद होत सोई वय हो है।
उतपत वय की दशा विविध परजय में सोहै।। धुव दरव स्वांग बहु धारिके गत गत में नाचत विगत ।
परजय अधार निरधार यह दरव एक निजरस पगत ।। इस लोक में द्रव्यदृष्टि से देखने पर न कोई उत्पन्न होता है और न कोई