________________
११०
प्रवचनसार अनुशीलन नित्य हो तो विकार अथवा अविकार सिद्ध नहीं होता और विकार पलटकर सिद्धदशा प्रगट करना भी नहीं रहता।
आत्मा ज्ञाता-दृष्टा स्वरूप है, अनन्त शक्तियों का पिण्ड है; इसमें समय-समय अन्य-अन्य अवस्था होती है; उस समय जीव भी पर्यायदृष्टि से उसरूप अन्य-अन्य होता है; किन्तु ध्रुव पृथक् नहीं रहता।
ध्रुव वस्तुस्वभाव की दृष्टि से देखो तो आत्मा वैसे का वैसा ही है अर्थात् जड़ चेतन नहीं होता और चेतन जड़ नहीं होता; किन्तु अपने में अपनी अवस्था के समय पर्यायदृष्टि से सम्पूर्ण द्रव्य पर्यायरूप होता है। जब पर्याय अन्य-अन्य होती है, तब द्रव्य भी सम्पूर्ण अन्य-अन्य होता है। यदि पर्याय के समान ध्रुव अन्य-अन्य न हो तो पर्याय और द्रव्य पृथक्-पृथक् हो जावेंगे; किन्तु ऐसा नहीं होता।
वस्तु स्वतंत्र है और समय-समय स्वतंत्र अवस्था करने के लिए समर्थ है। प्रत्येक वस्तु ध्रुव रहकर बदलती है, भावान्तररूप होती है; किन्तु अपना सर्वथा अभाव करके वह रूपान्तर नहीं होती।
सामान्य स्वभाव की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु ऐसी की ऐसी रहती है और पर्याय अपेक्षा से अपने पर्याय स्वभाव के कारण अन्य-अन्य होती है।
यदि शुद्ध स्वभाव प्रगटरूप हो तो वर्तमान में परमानन्द प्रगट होना चाहिए; परन्तु वर्तमान में संसार है; इसीलिए आकुलता है और यदि स्वभाव शक्तिरूप सुख का सागर न हो तो आकुलता मिटकर निराकुलता प्रगट नहीं होगी। शुद्ध स्वभाव शक्ति कायम (ध्रुव) रहकर अवस्था में परिणमन हुआ करता है और पर्याय होते समय ध्रुव पृथक् नहीं रहता। तथा ध्रुव अकेला रहे और पर्याय दूसरी हो जावे - ऐसा भी नहीं होता।'
मिथ्यात्व की पर्याय का व्यय होकर सम्यक्त्व की पर्याय प्रगट हुई है; किन्तु मिथ्यात्व की पर्याय सम्यक्त्व की पर्याय का कर्ता, करण और आधार नहीं है। इसीतरह देव-गुरु-शास्त्र भी सम्यक्त्व की पर्याय के कर्ता, करण और आधार नहीं हैं। ध्रुव स्वभाव भाव, गुण, शक्ति, १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३१४ २. वही, पृष्ठ-३१४ ३. वही, पृष्ठ-३१५
गाथा-११२-११३
१११ सदृश्य भाव स्वयं ही सम्यग्दर्शन का कर्ता है, वही करण है और वही आधार है।
सत्-उत्पाद कहो तो उसी ध्रुव में से उत्पाद हुआ है और असत्उत्पाद कहो तो भी पहले नहीं था और हुआ तो यही ध्रुव अन्यरूप हुआ है। यह का यही ध्रुव अन्यरूप हुआ है, अन्य कोई नहीं।२
प्रश्न - चारित्र गुण शुद्ध है, उसे विकार का कर्ता कैसे कहते हैं ?
उत्तर - भाई ! गुण में अशुद्धता द्रव्यदृष्टि से नहीं है - यह तेरी बात सही है; किन्तु पर्यायार्थिकनय से गुण स्वयं एक समय मात्र अशुद्ध परिणमित होता है; इसलिए विकार का कर्ता, करण और आधार चारित्रगुण है; क्योंकि वह उसी की पर्याय है। गुण तीनों काल की पर्यायों का पिण्ड है, उसमें से वर्तमान रागवाली पर्याय उसकी नहीं, यदि ऐसा कहकर एक पर्याय का अभाव करोगे तो गुण सम्पूर्ण सिद्ध नहीं होता।'
यहाँ जो गुण, शक्ति, समान, ध्रुव, सादृश्य कहा है; उसे सामान्य द्रव्य भी कहने में आया है, यह द्रव्यार्थिकनय का विषय है और सादृश्यरूप जो पर्याय है - जो उत्पाद-व्यय होता है, वह पर्यायार्थिकनय का विषय है। गुण और पर्याय होकर सम्पूर्ण द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रुव सहित सम्पूर्ण द्रव्य प्रमाणज्ञान का विषय है।"
इन गाथाओं में अनेक तर्क व उदाहरण देकर यही बात समझाने की कोशिश की है कि द्रव्य और पर्याय कथंचित् अन्य-अन्य हैं और कथंचित् अनन्य । जिस अपेक्षा से वे अनन्य हैं, उस अपेक्षा से सत्-उत्पाद है और जिस अपेक्षा से अन्य-अन्य हैं; उस अपेक्षा से असत्-उत्पाद है।
जैनदर्शन का सम्पूर्ण प्रतिपादन नय सापेक्ष है, स्याद्वादरूप है; उसमें एकान्तवाद को कोई स्थान प्राप्त नहीं है, सर्वत्र अनेकान्तवाद का ही साम्राज्य है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३२६ ३. वही, पृष्ठ-३२८
२. वही, पृष्ठ-३२७ ४. वही, पृष्ठ-३२८