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प्रवचनसार अनुशीलन
से उत्पन्न होता है, हरितपने से नष्ट होता है और आम रूप में स्थिर रहता है । इसीप्रकार द्रव्य को गुण-पर्यायों से जानना चाहिए ।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
"गुणपर्यायें एकद्रव्यपर्यायें हैं; क्योंकि गुणपर्यायों को एकद्रव्यपना है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि अनेक गुणों की पर्यायें हैं; इसीलिए द्रव्य पृथक् पृथक् है - ऐसा नहीं है। परमाणु की लाल, हरी आदि भिन्नभिन्न वर्णवाली तथा भिन्न-भिन्न रसवाली अवस्था होती है; इसीलिए परमाणु अनेक हो जाते हैं - ऐसा नहीं है; किन्तु लाल, हरी आदि अवस्थायें पदार्थ के ही अंश हैं; इसलिए वे अनेक द्रव्य नहीं होते ।
गाथा १०२ में उत्पाद-व्यय-ध्रुव स्वतंत्र बताया था । गाथा १०३ में समानजातीय अथवा असमानजातीय जो द्रव्यपर्यायें होती हैं, वे पूर्व की पर्याय के कारण नहीं होतीं; अपितु द्रव्य में से आती हैं- ऐसा कहा था।
गुणों का परिणमन अनेकरूप होने पर भी द्रव्य एकरूप रहता है। और वह परिणमन द्रव्य की ही अवस्था है- यह गाथा १०४ में बताया गया है।
गाथा १०३ में समानजातीय और असमानजातीय द्रव्यपर्याय द्वारा द्रव्य के उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य को बताया था और स्कंध में से स्कंधरूप अवस्था नहीं होती - ऐसा कहा था। इस गाथा में गुणपर्याय द्वारा उत्पादव्यय- ध्रौव्य को बताया है। "
विगत गाथा में अनेकद्रव्यपर्याय अर्थात् स्कन्ध व मनुष्यादि पर्यायों की बात की थी और अब इस गाथा में एकद्रव्यपर्याय अर्थात् मतिज्ञानादि पर्यायों की बात की जा रही है।
यहाँ गुण-पर्यायों की चर्चा करते हुए इस बात को विशेषरूप से स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक गुणपर्याय गुणों में से उत्पन्न होती है, पूर्व पर्याय में से नहीं ।
१. दिव्यध्वनिसार भाग - ३, पृष्ठ- २४२-२४३ २. वही, पृष्ठ- २४३
३. वही, पृष्ठ- २४५
प्रवचनसार गाथा - १०५
विगत गाथाओं में एकद्रव्यपर्यायों और अनेकद्रव्यपर्यायों के द्वारा एक द्रव्य में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य बताये गये हैं और अब इस गाथा में यह बताते हैं कि द्रव्य और सत्ता एक ही है।
गाथा मूलतः इसप्रकार है -
ण हवदि जदि सद्दव्वं असद्ध्रुव्वं हवदितं कहं दव्वं । हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता ।। १०५ ।। ( हरिगीत )
यदि द्रव्य न हो स्वयं सत् तो असत् होगा नियम से ।
किम होय सत्ता से पृथक् जब द्रव्य सत्ता है स्वयं । । १०५ ।। यदि द्रव्य स्वरूप से ही सत् न हो तो वह नियम से असत् होगा और जो असत् हो, वह द्रव्य कैसे हो सकता है ? सत्ता से द्रव्य का भिन्न होना संभव नहीं है। इसलिए द्रव्य स्वयं सत्ता ही है।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यदि द्रव्य स्वरूप से ही सत् न हो तो दूसरी गति यह होगी कि वह असत् होगा अथवा सत्ता से पृथक् होगा ?
यदि वह असत् हो तो ध्रौव्य के असंभव होने के कारण स्वयं स्थिर न होने से द्रव्य ही असत् हो जायेगा ।
दूसरे यदि द्रव्य सत्ता से पृथक् हो तो सत्ता के बिना भी स्वयं रहता हुआ; इतना ही मात्र जिसका प्रयोजन है; ऐसी सत्ता को ही अस्त कर देगा। किन्तु यदि द्रव्य स्वरूप से ही सत् हो तो ध्रौव्य के सद्भाव के कारण स्वयं स्थिर रहता हुआ द्रव्य सिद्ध होता है और सत्ता से अपृथक् रहकर स्वयं स्थिर रहता हुआ; इतना मात्र जिसका प्रयोजन है ऐसी सत्ता को ही सिद्ध करता है।