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प्रवचनसार अनुशीलन यदि द्रव्य उसके सत्ता गुण से भिन्न रहे तो सत्ता गुण का प्रयोजन नहीं रहता और इससे सत्ता गुण के अभाव का प्रसंग आता है।'
प्रश्न - क्या स्वप्न की पर्याय भी सत्तावाली होगी?
उत्तर - हाँ, वह पर्याय भी सत्तावाली है। ज्ञान की पर्याय में अस्तित्व का अभाव नहीं होता । अपनी ज्ञान की पर्याय में राग की पर्याय तथा अन्य पदार्थ जो स्वप्न में भासित होते हैं, वे जानने में आते हैं; इसीलिए वह अस्तित्ववाली पर्याय है। स्वप्न भ्रम नहीं, अवस्तु नहीं; वह भी एक वस्तु है। जीव के क्षायोपशमिक ज्ञान की पर्याय की उस समय की योग्यता है, तब वह स्वप्न देखता है।
इस गाथा में गुण-गुणी अभेद हैं - ऐसा सिद्ध किया है। द्रव्य और सत्ता का प्रदेशभेद नहीं है - ऐसा कहा है।
यहाँ अस्तित्व गुण की बात कही है; किन्तु सभी गुणों की सत्ता से द्रव्य अभेद है - ऐसा समझ लेना चाहिए।
दूसरे की सत्ता से अपनी सत्ता है - ऐसा माननेवाला सत्ता गुण और सत्तावान द्रव्य को भिन्न-भिन्न मानता है। भाव तथा भाववान पृथक् नहीं है, शक्ति तथा शक्तिवान पृथक् नहीं, स्वभाव व स्वभाववान पृथक नहीं है। इसीलिए द्रव्य स्वयं ही सत्ता है अथवा गुण-गुणी अभेद हैं, उनमें पृथकत्व नहीं है - ऐसा निर्णय करना चाहिए।"
इस गाथा और उसकी टीका में विविध तर्कों से यही सिद्ध किया गया है कि सत्ता और द्रव्य अभिन्न ही हैं, एक ही हैं।
यद्यपि यह परमसत्य है कि सत्ता गुण है, अस्तित्व नामक सामान्य गुण है और द्रव्य गुणी है; इसप्रकार इनमें गुण-गुणी भेद है; लक्षणभेद है; तथापि प्रदेशभेद नहीं है।
जबतक प्रदेशभेद न हो, तबतक गुण-गुणी को भिन्न नहीं माना जाता, अभिन्न ही माना जाता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-२४७ २ . वही, पृष्ठ-२४८ ३. वही, पृष्ठ-२४८ ४. वही, पृष्ठ-२४९ ५. वही, पृष्ठ-२४९
प्रवचनसार गाथा-१०६ विगत गाथा में यह कहा गया था कि सत्ता और द्रव्य अभिन्न ही हैं और अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि यद्यपि सत्ता और द्रव्य में पृथकता नहीं है; तथापि उनमें परस्पर अन्यता अवश्य है। गाथा मूलत: इसप्रकार हैपविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स। अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं होदि कधमेगं ।।१०६।।
(हरिगीत) जिनवीर के उपदेश में पृथक्त्व भिन्नप्रदेशता ।
अतद्भाव ही अन्यत्व है तो अतत् कैसे एक हों ।।१०६।। विभक्तप्रदेशत्व पृथक्त्व है और अतद्भाव अन्यत्व है - ऐसा भगवान महावीर का उपदेश है। जो उसरूप न हो, वह उससे अभिन्न कैसे हो सकता है ?
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार व्यक्त करते हैं -
"विभक्तप्रदेशत्व पृथक्त्व का लक्षण है। अत: यह पृथकत्व तो सत्ता और द्रव्य में संभव नहीं है; क्योंकि गुण और गुणी में सफेदी और दुपट्टे के समान विभक्तप्रदेशत्व का अभाव होता है। वह इसप्रकार है -
जिसप्रकार सफेदीरूप गुण के जो प्रदेश हैं, वे ही दुपट्टेरूप गुणी के भी हैं; इसलिए उनमें प्रदेशभेद नहीं है। इसीप्रकार सत्तागुण के जो प्रदेश हैं, वे ही प्रदेश गुणी द्रव्य के भी हैं; इसलिए उनमें प्रदेशभेद नहीं है। __ऐसा होने पर भी सत्ता और द्रव्य में अन्यत्व है; क्योंकि इनमें अन्यत्व का लक्षण घटित होता है। अतद्भाव अन्यत्व का लक्षण है । वह तो सत्ता
और द्रव्य में है ही; क्योंकि गुण और गुणी में सफेदी और दुपट्टे के समान तद्भाव का अभाव होता है।