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प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार इस गाथा में यह बताया गया है कि प्रत्येक पदार्थ अनादि से है और अनन्तकाल तक रहेगा । उसे न तो किसी ने बनाया है और न ही कोई उसका नाश कर सकता है। वस्तुत: बात यह है कि द्रव्य की तो उत्पत्ति ही नहीं होती। जो उत्पन्न और नष्ट होती हैं, वे तो पर्यायें हैं।
सत् अर्थात् सत्ता द्रव्य का लक्षण है और वह द्रव्य स्वत:सिद्ध है। वह सत् अर्थात् सत्ता द्रव्य से कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है। द्रव्यार्थिक नय से अभिन्न है और पर्यायार्थिक नय से भिन्न है।
जो व्यक्ति उक्त वस्तुस्वरूप को स्वीकार नहीं करता; वह अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है, परसमय है।
इसप्रकार यहाँ यही स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से सत् है और सिद्ध है अर्थात् स्वयं से सिद्ध है, अकृत्रिम है।
सफलता संगठन और असफलता विघटन की जननी है। जब किसी काम में एक के बाद एक सफलताएँ मिलती चली जाती हैं तो हमारा उत्साह बढ़ जाता है और अनेक लोग हमारे साथ हो जाते हैं, कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ता है, उनमें एक नई उमंग जागृत हो जाती है। नए-नए लोगों के शामिल होते जाने से जहाँ संगठन विशालरूप धारण करने लगता है, वहीं उसमें दृढ़ता का विकास भी होता है; किन्तु जब किसी संगठन को असफलता का सामना करना पड़ता है तो उसमें दरारें पड़ने लगती हैं। उसके सदस्य एक-दूसरे से कतराने लगते हैं, परस्पर एक-दूसरे की आलोचनाएँ ही नहीं करते, वरन् असफलता का दोष भी एक-दूसरे के सिर मढ़ने लगते हैं। यह आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला यहाँ तक चलता है कि स्थिति कभी-कभी विघटन के कगार तक पहुँच जाती है।
- सत्य की खोज, पृष्ठ-१८६
प्रवचनसार गाथा ९९ विगत गाथा में कहा गया है कि द्रव्य स्वभाव से ही सत् है और स्वत:सिद्ध है; अबइस गाथा में यह बता रहे हैं कि स्वभाव में अवस्थित होने से द्रव्य सत् है और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप परिणमन द्रव्य का स्वभाव है।
गाथा मूलत: इसप्रकार हैसदवट्टिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो। अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो ।।९९।।
(हरिगीत) स्वभाव में थित द्रव्य सत् सत् द्रव्य का परिणाम जो।
उत्पादव्ययध्रुवसहित है वह ही पदार्थस्वभाव है ।।१९।। स्वभाव में अवस्थित होने से द्रव्य सत् है। द्रव्य का परिणाम उत्पादव्यय-ध्रौव्य सहित है, वह पदार्थों का स्वभाव है।
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस प्रकार स्पष्ट करते हैं
"सदा स्वभाव में ठहरा होने से द्रव्य सत् है और द्रव्य का स्वभाव ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय की एकतारूप परिणाम है।
जिसप्रकार द्रव्य का वास्तु समग्रपने एक होने पर भी, विस्तारक्रम में प्रवर्त्तमान उसके जो सूक्ष्म अंश हैं, वे प्रदेश हैं; उसीप्रकार द्रव्य की वृत्ति समग्रपने एक होने पर भी, प्रवाहक्रम में प्रवर्त्तमान उसके जो सूक्ष्म अंश हैं, वे परिणाम हैं।
जिसप्रकार विस्तारक्रम का कारण प्रदेशों का परस्पर व्यतिरेक है; उसीप्रकार प्रवाहक्रम का कारण परिणामों का परस्पर व्यतिरेक है।
जिसप्रकार वे प्रदेश अपने स्थान में स्व-रूप से उत्पन्न और पूर्व-रूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एकवास्तुपने द्वारा अनुत्पन्न-अविनष्ट होने से उत्पत्ति-संहार-ध्रौव्यात्मक हैं; उसीप्रकार वे