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गाथा-१०१
प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रुव, प्रत्येक अंश के आश्रित हैं। जिस क्षण वस्तु नवीन भाव से उत्पन्न होती है, उसी क्षण पूर्व भाव से व्यय को प्राप्त होती है और उसी क्षण द्रव्यरूप से ध्रुव रहती है - इसप्रकार उत्पादव्यय-ध्रुव तीनों एक साथ ही अंशों के अवलम्बन से हैं; किन्तु अंशी के ही उत्पाद, व्यय अथवा ध्रुव नहीं हैं।
यहाँ ध्रुव को भी अंश की अपेक्षा से पर्याय कहा है; किन्तु उसमें द्रव्य का सामान्य भाग है । मात्र उस ध्रुव में ही सम्पूर्ण वस्तु का समावेश नहीं होता । इसलिए उसे भी अंश कहा है और अंश होने से पर्याय कहा है। इस अपेक्षा से ध्रुवता भी पर्याय के आश्रित कही गई है।'
यदि पूर्व के अंश का व्यय न मानकर द्रव्य का ही व्यय माना जाये तो समस्त द्रव्य एक क्षण में नाश को प्राप्त हो जायेगा अर्थात् सत् का ही नाश हो जायेगा।
यदि द्रव्य का ही उत्पाद माना जाये तो क्षणिक पर्याय ही द्रव्य हो जायेगी और प्रतिक्षण नवीन-नवीन द्रव्य ही उत्पन्न होने लगेगा । द्रव्य की अनन्त पर्यायों में से प्रत्येक पर्याय स्वयं द्रव्य हो जायेगी; इसलिए एक द्रव्य को ही अनन्त द्रव्यपना हो जायेगा अथवा वस्तु के बिना असत् का ही उत्पाद होने लगेगा।
यदि सम्पूर्ण द्रव्य को ही ध्रुव मान लिया जाये तो क्रमशः होनेवाले उत्पाद-व्यय भावों के बिना द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा अथवा द्रव्य को क्षणिकपना हो जायेगा।
उत्पाद, व्यय और ध्रुव - यह तीनों एकसाथ हैं, किन्तु वे अंशों के हैं, द्रव्य के नहीं हैं। __इस गाथा में आचार्यदेव को यह सिद्ध करना है कि उत्पाद, व्यय १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-२०५-२०६ २. वही, पृष्ठ-२०६
३. वही, पृष्ठ-२०६-२०७ ४. वही, पृष्ठ-२०७
५. वही, पृष्ठ-२०८
और ध्रुव ये द्रव्य से पृथक् कोई पदार्थ नहीं हैं; किन्तु द्रव्य में ही इन सबका समावेश हो जाता है।
(१) यदि द्रव्य का ही उत्पाद मान लिया जाये तो व्यय और ध्रुव का समावेश द्रव्य में नहीं होगा । (२) यदि द्रव्य का ही व्यय मान लिया जाये तो उत्पाद और ध्रुव का समावेश द्रव्य में नहीं होगा। (३) यदि द्रव्य का ही ध्रौव्य मान लिया जाये तो उत्पाद और व्यय का समावेश द्रव्य में नहीं होगा। इसलिए उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्वारा पर्याय आलम्बित हो, जिससे यह सब एक ही द्रव्य हो।"
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों के ही होते हैं, द्रव्य के नहीं; क्योंकि द्रव्य तो अनादिअनंत ध्रुव पदार्थ है; उसका उत्पाद और नाश कैसे संभव है ? हाँ, यह बात अवश्य है कि उत्पादादि की आधारभूत पर्यायें द्रव्य की ही हैं; इसकारण ये सब द्रव्य ही हैं।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-२०८-२०९
असफलता के समान सफलता का पचा पाना भी हर एक का काम नहीं है। जहाँ असफलता व्यक्ति को, समाज को हताश, निराश, उदास कर देती है, उत्साह को भंग कर देती है। वहीं सफलता भी संतुलन को कायम नहीं रहने देती। वह अहंकार पुष्ट करती है, विजय के प्रदर्शन को प्रोत्साहित करती है। कभी-कभी तो विपक्ष को तिरस्कार करने को भी उकसाती नजर आती है।
पर सफलता-असफलता की ये सब प्रतिक्रियाएँ जनसामान्य पर ही होती हैं, गंभीर व्यक्तित्ववाले महापुरुषों पर इनका कोई प्रभाव लक्षित नहीं होता। वे दोनों ही स्थितियों में सन्तुलित रहते हैं, अडिग रहते हैं।
-सत्य की खोज, पृष्ठ-२३३