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६. मृषाक्रिया - स्व या पर के लिये झूठ बोलना यह मृषादंड है ।।८२५ ।।
७. अदत्तादान क्रिया -- स्व या पर के लिये स्वामी द्वारा बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करना अदत्तादान क्रिया है । अध्यात्मक्रियास्थान इस प्रकार है ||८२६ ।।
८. अध्यात्मक्रिया — बिना किसी बाह्यनिमित्त के स्वयं के विचार द्वारा ही मन में विषाद होना अध्यात्मक्रिया है । अध्यात्म क्रिया के मुख्य चार स्थान हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ ॥८२७ -१/२ ॥ ९. मानक्रिया - जाति आदि आठ प्रकार के मान से मत्त होकर जो दूसरों की अवज्ञा, निंदा व तिरस्कार करता है वह मानक्रिया स्थान है ।।८२९ ।।
द्वार १२१
१०. अमित्रक्रिया - अल्प अपराध में अधिक दंड देना, जैसे- डाम लगाना, गोदना, बाँधना, ताड़ना तर्जना करना आदि दसवीं अमित्रक्रिया है ||८३० ॥
११. मायाक्रिया - गूढ़ सामर्थ्यवाला, मन-वचन और क्रिया ये तीनों जिसके परस्पर विसंवादी हों ऐसे व्यक्ति की क्रिया मायाक्रिया है ।। ८३१ ।।
१२. लोभक्रिया -- महान पापारंभ परिग्रह आदि में आसक्त, स्त्री, कामभोगादि में गृद्ध स्वयं की रक्षा के लिये अन्य जीवों का वध, बंधन एवं ताड़ना आदि करने वालों की क्रिया लोभक्रिया है ।८३२-८३३ ।।
१३. ईर्यापथिकी क्रिया — अब ईर्यापथिकी क्रिया का वर्णन करते हैं। यह क्रियास्थान समिति गुप्ति से सुगुप्त मुनि को ही होता है। सतत अप्रमत्त मुनि भगवन्त की पलकें गिरना, चक्षु आदि का संचलन होना इत्यादि रूप सूक्ष्म ईर्यापथिक क्रियास्थान होता है ।। ८३४-८३५ ।।
-विवेचन
क्रियास्थान = कर्मबन्धन की हेतुभूत क्रियाओं के तेरह प्रकार हैं ।
१. अर्थक्रिया
८. अध्यात्मक्रिया
२. अनर्थक्रिया
३. हिंसाक्रिया
४. अकस्मात्क्रिया
५. दृष्टिविपर्यासक्रिया
६. मृषाक्रिया
७. अदत्तादानक्रिया
९.
मानक्रिया
१०. अमित्रक्रिया
११. मायाक्रिया
१२. लोभक्रिया
१३. ईर्यापथक्रिया ॥ ८१८ ॥
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१. अर्थक्रिया- अपने शरीर आदि के लिये तथा स्वजन, परिजनादि के लिये द्वीन्द्रिय आदि सजीवों की तथा पृथ्वी आदि स्थावर जीवों की हिंसा करना " अर्थक्रिया" है। जिसके द्वारा पृथ्वी आदि स्थावरजीव तथा द्वीन्द्रिय आदि सजीव दण्डित हों, वह दंड है अर्थात् वह हिंसा है। ऐसी हिंसा सप्रयोजन अर्थात् अपने लिये या स्वजनादि के लिये हो तो अर्थदंड कहलाती है । उस अर्थदंड को करने वाला भी क्रिया- क्रियावान में अभेद उपचार से अर्थदंड कहलाता है ॥ ८१९ ॥
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