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प्रतिष्ठा
एककुडये चतुर्विशसमुदायोऽपि पंचशः ।
त्रयं सप्त जिनेंद्राणां विंबसंस्थोपलाल्यते ॥ ७ ॥ __एक भित्तिमें भी चौवीसका समुदाय तथा पंच कुमारका समुदाय, वा तीन जो शांति कुंथु अर इनका तथा सप्त भी विच स्थापन रुपलालन करिये है॥७२॥
प्लुष्टं तथा वेधितगूढनेत्ररेखांगुलिक्लिष्टहतप्रभं च । वयं प्रतिष्ठासु पुराणगावं लंबोदराद्यष्टकदोषयुक्तं ॥७३॥
____ इति प्रतिष्ठेमस्वरूपसमर्थनम् । और दग्ध तथा विद्ध गूढ नेत्र रेखालिवर्जित अरु निष्पम अरु पुराण जर्जर शरीर अरु लांबा उदर पोष्ठ आदि पाठ दोषसंयुक्त ऐसा जिनविच प्रतिष्ठा विधानमें वर्जित है॥७३॥
ऐसे प्रतिष्ठय स्वरूप वर्णन किया।
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अथ प्रतिष्ठापकलक्षणम्। अव प्रतिष्ठापक जो प्रतिष्ठा करावनेवाला ताका स्वरूप कहिये है
आत्मसंपत्तिद्रव्येण व्ययं कृत्वा महोत्सुकः ।
यः करोति प्रतिष्टां च स प्रतिष्ठापको मतः ॥७४॥ आत्मीक द्रव्यकी संपत्तिकरि व्ययकरि महान् उत्सवका कर्ता होय जो प्रतिष्ठा करावै सो प्रतिष्ठापक कहिये ॥४॥ अब ऐसा प्रतिष्ठापक योग्य नाही होय सो कहिये है
निषादनाडिंधममुंडिचंडीपरीष्टिपाटच्चरदारपण्यं ।
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