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अतुषपाया
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
अमिषा प्रात्मा राम है, अनुपम प्रागम ज्ञान ।
मुनि-गण-नायक संयमी, गुरु मेरे भगवान ।। बन्धन कर गुरुदेव को, चरणों का घर ध्यान । टीका पाद चतुर्थ की, लिखता है मुनि मान ।
* अथ धातुओं को होने वाली आदेश-विधि (क)*
कथि (कथ्) प्रादि धातुओं के स्थान में बज्जर आदि जो आदेश होते हैं, अब सूत्रकार उन का निर्देश कर रहे हैं
७२...मगले सूत्रों में जो इंदित (जिन में इकार इत् हो) धातु बतलाए जाएंगे, उनके स्थान में जो प्रादेश होते हैं, वे वैकल्पिक समझने चाहिएं। उनके उदाहरण वहीं दिए जाएंगे।
६७३-थि धातु के स्थान में-१-बज्जर, २-पस्मार, ३-उपाल, ४.-पिसुरण, ५--- संघ, ६-बोल्ल, ७-चव, जम्प, ई-सीस और १०--साहये दस प्रादेश विकल्प से होते हैं। जैसे-१-कथयति-वजरइ, पज्जर इ, उप्पालइ, पिसुगई, संघइ, बोल्लइ, पद, जम्पइ, सीसइ, साहस (वह कहता है)। यहां पर कथि धातु के स्थान में वज्जर मादि दस मादेश किए गए हैं। जहां ये आदेश नहीं हुए वहां कहा यह रूप बनता है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि 'उबुक्का यह रूप तो उत् उपसर्गपूर्वक बुक्क (बोलने अर्थ में) धातु (उबुंस्कतिम्प बोलता है) से बनता है । इसके अतिरिक्त, वृत्तिकार फरमाते हैं कि अन्य मावायों ने सत्रोक्त वजरमादि मादेश देशी-भाषामों में पड़े हैं.तत्तद्देशों की भाषांत्रों के धातु माने हैं, किन्तु हमने इन्हें कथि-धात्वादेश स्वीकार किया है। कथि-धाएवादेश मानने का यह लाभ है कि अनेकविध प्रत्ययों के परे होने पर भी ये मादेश किए जा सकते हैं । जैसे ----कपितः= बजरित्रो (कहा हुआ),२-कापयित्वा बजरिऊण (कह कर), ३ -कथनम् बजरणं (कहना), ४-कथयन =वज्जरन्तो (कहता हुमा), ५-कवितव्यम-वजरियब्ध (कहना चाहिए.) यहां पर 'बज्जर' इस आदेश में क्त, कृत्वा आदि प्रत्यय किए गए हैं। वृत्ति कार फरमाते हैं कि जैसे बज्जर प्रादेश से क्त प्रादि प्रत्यय करके उक्त रूप बनाए गए हैं,इसी भांति सभी कथि-धात्वादेशों से क्त,कत्वा प्रादि प्रत्ययों को लाकर हजारों रूप बनाए जा सकते हैं। दूसरी बात, जैसे संस्कृतभाषा में धातुओं से प्रत्यय, लोप तथा प्रागम प्रादि विधियां कार्य किए जाते है,से हो प्रर्थात् संस्कृत भाषा के समान ही प्राकृत-भाषा में भी प्रत्यय, लोप तथा ग्रागम आदि कार्य कर लेने चाहिए ।
६७४ -दुःखविषयक कथिधातु के स्थान में णिवर यह आदेश विकल्प से होता है। जैसेदुःखं कथयति-णिधरइ (वह दुःख कहता है। यहां कथि-धातु को गिन्धर,यह वैकल्पिक प्रादेश किया गया है।
६७५-जुगुप्सि धातु के स्थान में १-झुण, २-दुगुच्छ और ३---गुच्छ ये तीन प्रदेश विकल्प से होते हैं । जैसे-जुगुप्सति भणइ, दुगुकछह, दुमु छर जहां पर प्रस्तुत सूत्र ने अपना कार्य नहीं किया, वहां पर जुगुटखा यह रूप होता है। पहले रूपों में १७७ सूत्र से गकार का लोप होने पर बुउच्छाद, बुजण्या , जुउछह (वह रक्षा करना चाहता है) ये रूप भी बनते हैं।
६७६--बुभुक्षि धातु और प्राचार-विषयक विचप-प्रत्ययान्त वीजि धातु के स्थान में यथासंख्य (संख्या के अनुसार) भौरव और बोज्न ये दो प्रादेश विकल्प से होते हैं । जैसे------बुभुक्षति - गीरवद,