Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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। २४ ) २३-तिर्यंचगति में आहारकद्विक और वैक्रियद्विक के अतिरिक्त ग्यारह योग मानना युक्तिसगत है या वैक्रियद्विक सहित तेरह योग मानना । इसका दिगम्बर और श्वेताम्बर कर्म साहित्य में अपेक्षा से समाधान किया गया है, लेकिन निर्णय में एकरूपता होनी चाहिए।
२४-दिगम्बर साहित्य में नपुसकवेदमार्गणा में आहारकद्विक के सिवाय तेरह योग माने हैं। लेकिन श्वेताम्बर कर्म साहित्य में सभी पन्द्रह योग बताये हैं। इसी प्रकार श्वेताम्बर साहित्य में आहारक मार्गणा में पन्द्रह योग माने हैं, लेकिन दिगम्बर साहित्य में कार्मणकाययोग के सिवाय चौदह योगों का निर्देश किया है।
२५–कार्मग्रन्थिक मतानुसार अज्ञानत्रिक, अभव्य, सासादन और मिथ्यात्व इन छह मार्गणाओं में कुमति, कुश्र त, विभंगज्ञान, चक्षु-अचक्षुदर्शन ये पाँच उपयोग होते हैं। लेकिन सिद्धान्त के अनुसार तीन अज्ञान और चक्षुदर्शन आदि प्रथम तीन दर्शन कुल छह उपयोग हैं।
२६–कार्मग्रन्थिक आचार्यों में अवधिदर्शन को गुणस्थानों में मानने के बारे में दो मत हैं १-चौथे आदि से नौ गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानता है, २-तीसरे गुणस्थान में भी अवधिदर्शन मानता है ।
२७ -मिश्र गुणस्थान में वैनियमिश्र काययोग न मानने का क्या कारण है ?
२८- श्वेताम्बर साहित्य में पाँचवें गुणस्थान में चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक व वैक्रियद्विक काययोग- ये ग्यारह योग, छठे गुणस्थान में पाँचवें गुणस्थान के ग्यारह योगों के साथ आहारकद्विक को मिलाने से तेरह योग और सातवें गुणस्थान में औदारिक, मनोयोग चतुष्क, वचनयोग चतुष्क, वैक्रिय, आहारक सहित ग्यारह योग माने हैं। लेकिन दिगम्बर साहित्य में पांचवें और सातवें गुणस्थान में औदारिक काययोग, चार मनोयोग, चार वचनयोग कुल नौ योग तथा छठे गुणस्थान में औदारिक काययोग, आहारिकद्विक, चार मनोयोग और चार वचनयोग कुल ग्यारह योग माने हैं। Jain Education International
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