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(2) उष्ण वेदना - गर्मी इतनी ज्यादा होती है कि उसको इंट निभाडा के बीच में शांति का अनुभव होता है । (3) क्षुधा वेदना - लोक के सभी पुद्गल/धान्य का आहार करने पर भी तृप्ति नहि होती है। (4) पिपासा.- (तृषा) सभी नदी, सरोवर, सागर का पानी पीने पर भी गला हमेशा सुका रहता है। (5) कण्डू • खरज - छूरी घीसने पर भी खुजली नहि मिटती ।। (6) परवशता - परमाधामी की नजर से छूटकर कहां भी जा नहि शकते। (7) ज्वर - अकसो पांच डिग्री से अत्यधिक बुखार हमेशा रहेता है । (8) दाह - भयंकर कोटी की आग उनके शरीर में जलती है । (9) भय - अवधि/विभंग ज्ञान से आगे की आपत्ति जानकर हमेशा भयभीत रहते है। (10) शोक - उसी प्रकार हमेशा शोक विह्वल बने रहते है
वहां मांस और सडे हुए शब से अत्यधिक दुर्गंध होती है, नीचे की भूमि छुरी के धार जैसी होती है, पहेली तीन नरक तक परमाधामी दुःख देते है । नीचे की नरक में परस्पर वेदना एवं क्षेत्रवेदना, परमाधामी की वेदनासें ज्यादातर दुखदायी होती है ।
तिर्यञ्च के तीन भेद है। (1) जलचर • मच्छी, मगर आदि (2) खेचर - कबुतर आदि पक्षी (3) स्थलचर के तीन भेद - (1) चतुष्पद - गाय भैस आदि (2) उरपरिसर्प - पेट से चलने वाले साप.अजगर आदि । (3) भुजपरिसर्प- हाथ से चलने वाले नोलीया/नवेला, बंदर इत्यादि । इनके संमूर्छिम ओर गर्भज दो प्रकार है ० मात-पिता के संयोग बिना बाह्य पुद्गल संयोग से पैदा होने वाले समूर्छिम । उससे विपरित गर्भज |
पदार्थ प्रदीप