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4. स्वाध्याय - वाचनादि पांच प्रकार से जिनागमादि की भक्ति करना। 5. ध्यान - आर्त रौद्र ध्यान को छोडके धर्म-शुक्ल ध्यान करना । 6. कायोत्सर्ग - काया को पापव्यापार से रोकना और शुभ भाव में प्रवृति करना ।
(बंध-तत्त्व
प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश इस चार प्रकार से कर्म का बंध आत्मा करता है। 1. प्रकृति बंध - कर्म के स्वभाव का तय होना, जैसे यह कर्म ज्ञान को आवृत्त करेगा इत्यादि । 2. स्थिति बंध - यह कर्म कितने समय तक आत्मा के साथ टिकेगा । 3. रस बंध - यह कर्म तीव्र रस से उदय में आयेगा इत्यादि निश्चित होना । लेश्या कषाय जनित मन परिणाम के अनुसार शुभ प्रवृति में कषाय की मंदता से तीव्रतम शुभ कर्म में रस पडता है, अशुभ प्रवृत्ति में कषाय की तीव्रता से अशुभ कर्म में तीव्रतम रस पडता है। .. 4. प्रदेश बंध - जीव प्रदेशो के साथ कर्म प्रदेशो का जुडना, योग (मन, वचन, काया का व्यापार ) की उत्कृष्टता से ज्यादा कर्म प्रदेश आत्मा से छिपकते है, योग की मंदता पर अल्प कर्म प्रदेश आत्मा से जुडते है ।
[कर्म का परिचय 1. ज्ञाना वरणीय - आंख पे पट्टी लगाने से हमे कुछ दिखता नहि है, उसी प्रकार इस कर्म के उदय से हमें कुछ ज्ञान नहि होता है । 2. दर्शनावरणीय · द्वारपाल यदि रोक ले तो हम अन्दर बेठे राजा को देख नहि सकते है, उसी प्रकार इस कर्म के उदय से सामान्य ज्ञान आवृत हो जाता है, जिससे हमको बहेरापन, अंधापन आदि प्राप्त होता है ।
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प दार्थ प्रदीप