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बनती है, तथा पुद्गल का भी एसा स्वभाव है कि वह विस्त्रसा परिणाम से भिन्न रूप धारण करता रहता है और साथ में लोक स्थिति भी काम करती है जैसे - सूर्य चन्द्र आदि का भ्रमण निराधार रहना । मेरू आदि शाश्वत पदार्थ का एक रूप में रहना । अर्थात् जीव में विचित्रता कर्म सेऔर पुदगल में जीव कृत प्रयोग अथवा स्व परिणाम, द्वारा भिन्न भिन्न कार्य दिखाई देते है, उनके लिए इश्वर नाम की कोई दैवी द्वरा व्यक्ति मानने की जरूरत नहिं है ।
आज से सो साल पहले १८९३ में चिकागो धर्म सभा में इश्वर वाद का खंडन करके कर्मवाद को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ । हा ! ईश्वर कृपा अवश्य मान सकते है, परमात्मा के उपर आदर बहुमान रखना ही ईश्वर कृपा है और वह शुभ भाव रूप होने से उससे पाप का विगम और पुण्य का बंध होता है।
पाप विच्छेद के हेतु
पंचसूत्र में बताया गया है कि दुःख रूप संसार का विच्छेद शुद्ध धर्म से होता है, उसकी प्राप्ति पाप कर्म दूर होने से होती है उसके तथाभव्यतादि कारण है, उसका परिपाक अरिहंत/सिद्ध साधु/जिन प्रवचन का शरण कारण है, दुष्कृत की गर्दा जो कोई भी बूरा कार्य किया हो उसके लिये पश्चाताप करना ।
सुकृत की अनुमोदना. शुभ कार्य किया हो उसकी अनुमोदना करना, वाह ! आज तो मेरे हाथ से प्रतिष्ठा हो गई । में आज धन्य धन्य बन गया इत्यादि ।
|| चार प्रकार के ध्यान || 1. आर्तध्यान - अनिष्ट पदार्थ यहां से कब हटे अच्छा पदार्थ मेरे से दूर न हो, एसे विचार में मग्न होना और अरे ! बापरे ! यह कितना भारी दर्द ! इत्यादि/धार्मिक क्रिया के बदले में भौतिक सुख प्राप्त करने का दावा 111
प दार्थ प्रदीप