Book Title: Padarth Pradip
Author(s): Ratnajyotvijay
Publisher: Ranjanvijay Jain Pustakalay

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Page 127
________________ कहते हो तब वह अपने को धन्य मानने की बजाय फस गया एसा मानता स्वभाव-जो आत्मा मोक्ष जाने योग्य हे उसी को समकित मिलता है ! हा उसमेंभी अपनी योग्यताके अनुसार ही समकित प्राप्त होता है! उसे तथा भवितव्यता कहते है! 3. भवितव्यता-निश्चित गुरू से ही उस ही वख्त उस ही क्षेत्र में समकित की प्राप्ति होना । पूर्व काल का दिन उससे अच्छा था वचन सुन्दर बोध दायक व गुरू भी बडे विद्वान थे मगर बोधि प्राप्त न हुई, दूसरे दिन न हि कोई एसा मोका था मगर सामान्य साधु के एक ही वचन से वह धर्म भावित बन गया, बस इसमें भवितव्यता काम करती है। 4. कर्म - ज्ञानावरणीय | दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से वचन का बोध हुआ / मिथ्यात्व मोहनीय क्षयोपशम से वचन में रूचि पैदा हुई, लाभान्तराय के क्षयोपशम से एसा वचन सुनने को मिला और समकित गुण की प्राप्ति हुई। 5. पुरुषार्थ - यदि समझने व सुनने का प्रयत्न नहि करता । गुरू के पास नहि जाता तो यह कार्य केसे बनता ? अर्थात् समझने विचारने का प्रयत्न किया वह पुरूषार्थ ही समकित प्राप्ति का कारण है। इसमें मुख्य कारण तो जिन वचन है, यदि इस दुनिया में जिनेश्वर ने शासन की स्थापना करके प्रवचन का प्रवाह न चलाया होता तो किसी भी व्यक्ति को समकित की भी प्राप्ति ही असंभावित बन जाती। सभी कार्य का कर्ता हर्ता सर्व शक्तिमान इश्वर नामधारी कोई नहि है । क्यों कि वह जीवात्माओ को निष्कारण सुख दुःख देता है तो उसमें राग देष मानने की आपत्ति आयेगी । यदि वह कर्मानुसार सुख दुःख का जीवात्मा में सर्जन करता है, एसा माने तो फिर ईश्वर की सर्व मालिकी कहां रही ? इससे अच्छा तो कर्म को हि सभी विचित्रता का कारण मानना ठीक है। फूलो में रंग/महक व रत्न में कान्ति आदि जीवगृहित शरीर से पदार्थ प्रदीप 110

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