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धर्म के अनुसार निर्दोष क्रिया स्वभाव रूप से करते है लेकिन कोई पूर्वापर का विचार को यहां अवकाश नहिं है, क्यो कि वे सम्पूर्ण ज्ञान के स्वामी है 'में एसा करुंगा तो एसा होगा' एसे विचार भविष्य की अज्ञानता का परिचय देती है केवली तो सब साक्षात् जानते है । लेकिन व्यवहार नय को सामने रखकर साधु योग्य क्रिया का पालन करते है। 14. अयोगी - एक भी योग का यहां प्रयोग नहि होता अ, इ, उ, ऋ, लृ ये पांच हस्वाक्षर के उच्चार प्रमाण समय में सभी कर्मों का नाशकर आत्मा सिद्ध गति को भेटती है |
सिद्धि गतिमें आत्मा स्वतंत्र रहती है, उसे शरीर का भी बन्धन नहिं रहता । किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करने की इच्छा का अभाव होने से उसके प्रतिकार रूप क्रिया करने की आवश्यकता नहि रहती । जैसे - जिसे आइस्क्रीम खाने की इच्छा ही नहि उसे उस इच्छा को शांत करने वाली प्रवृत्ति - आईस्क्रीम खरीदना/खाना इत्यादि क्रिया की आवश्यकता नहिं रहती अतः पर पदार्थ की अपेक्षा न रहने से सदा सुखी रहता है।
॥क्षयोपशम विचारणा ॥
देशघाती स्पर्धको को उदय में लाकर क्षय करना और सर्वघाती स्पर्धको को दबाके रखना । अर्थात जितनी मात्रा में रस कम रहता है, उतना ही गुण प्रगट होता है, अभ्यास से क्षयोपशम बढता है, जैसे दो गाथा याद करने वाला बालक धीरे धीरे दस पंद्रह गाथा करने लगता है इस रीती से पैदा हुए गुणों को क्षयोपशमिक गुण कहते है।
कर्म के दो प्रकार है, घाती , अघाती, आत्म गुणो का घात करने वाले घाती व केवल शरीर आदि पर प्रभाव डालने वाले कर्म अघाती ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, व अंतराय ये 4 घातीकर्म है, शेष 4 अघाती है।
पदार्थ प्रदीपE D 1080