Book Title: Padarth Pradip
Author(s): Ratnajyotvijay
Publisher: Ranjanvijay Jain Pustakalay

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Page 123
________________ गुणस्थानक ] 1. मिथ्यात्व अज्ञान में खासतोर पें आध्यात्मिक विपरीत ज्ञान में रूचि रखने की बात है, लेकिन भेड को बकरी कहने से समकिती जीव मिथ्यात्वी नहिं बन जाता । क्यों कि एसे अज्ञान का कारण मिथ्यात्व नहिं, बल्की ज्ञानावरणीय कर्म है । इस जगह रहे हुए व्यक्ति में भी दया । कृतज्ञता आदि गुण तो होते है अतः इसे भी गुणस्थानक कहते है । अथवा गुणस्थानक में सभी जीवो का समावेश करने लिये इसे गुणस्थानक संज्ञा दी है । जिन प्रवचन व अन्य दर्शन में भी समान भाव रखना, वह एक प्रकार का मिथ्यात्व है। आज कल बहोत लोग एसा बोलते है कि हम तो सब धर्म को समान मानते है । मगर अमृत को विष समान मानना भूल है, क्यो कि वह मृत्यु शूल को पैदा करती है, उसी तरह एसी श्रद्धा हमें जैन दर्शन में द्रढ श्रद्धा से वंचित रखती जिससे जिनामृत हमारे हाथ से खिसक जाता है । 2. सास्वादन - समकित प्राप्त करने के बाद कषाय वश भाव से चलित होने पर भी थोडी देर तक मिथ्यात्व का उदय नहिं होता तब तक यह गुणस्थानक होता है । वोमिटिंग किये गये समकित का थोडा सा स्वाद रह जाने से सास्वादन कहते है । · 3. मिश्र - जिन सिद्धान्त में रूचि अरूचि का अभाव, एसा भाव अंतमुहुर्त रहता है । बाद में वह मिथ्यात्वी / समकिती बनता है । 4. अविरत सम्यग्द्रष्टि यहां पर रहा हुआ जीव मोक्ष को लक्ष्य बनाकर धार्मिक अनुष्ठान करता है, संसारिक कृत्य करते हुए भी उसमें रूचि नहिं रखता, मगर आनंद की अनुभूति तो होती है । जैसे बच्चे को खिलाते आनंद आता है । मगर मन में अंक भाव पडा रहता है यह सब मेरा नहि है । यहां पर रहे मनु तिर्यञ्च देव का आयुष्य बांधते है । मगर यहां कोई पदार्थ प्रदीप 106

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