Book Title: Padarth Pradip
Author(s): Ratnajyotvijay
Publisher: Ranjanvijay Jain Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 122
________________ उसी दशा में रहता है । नरक में जीव कुंभी में जा गीरता है और कुछ ही पल में शरीर परिपूर्ण | बडा हो जाता है । मगर कुंभी का मुह छोटा होने से परमाधामी शस्त्र के द्वारा टुकडे टुकड़े करके बहार निकालते है, उस छेदन भेदन में मौत से भी तीव्रतम वेदना होती है मगर थोडी ही देर में पारे की तरह पुनः एक शरीर बन जाता है । गौत्र कर्म - उत्तम कुल में जन्म पाना उच्चगोत्र का उदय है जिससे अच्छे संस्कार - सन्मान आदि की प्राप्ति होती है, नीच कुल में पेदा होने वाले में अच्छे संयोग मिलने पर भी अपने जात की भात ज्यादा तोर से बता ही देता है। अन्तराय कर्म - दानांतराय - सामग्री मिलने पर भी दान न कर सके। लाभांतराय · दातार का संयोग मिलने पर भी जिसकी झोली खाली ही रहती है । भोगान्तराय - सामग्री मिलने पर भी भय या रोगादि कारण भुगतान न कर सके । उपभोगान्तराय - पुनः पुनः जिसका प्रयोग हो सके एसे वस्त्र स्त्री आदि का भुगतान न कर सके । वीर्यान्तराय - युवावस्था है कोई प्रतिबंध न होने पर भी शक्ति का उपयोग न कर सके । शक्ति की प्राप्ति न होवे । धार्मिक क्रिया में जितना प्रमाद (आलस) करते उतना कर्म चिकना बनता है । ओर बल लगाकर (मन मोडकर) सुंदर क्रिया करने से क्षयोपशम होता है | पांव दुःखने पर भी प्रतिक्रमण खडे खडे करने से भारी निर्जरा होती है। निर्जरा का संबध सहन शीलता के साथ भी है अतः जिस पाप के प्रायश्चित में चौमासे में अट्ठम आता है उसी के लिये गर्मी में 1 उपवास, धर्म सामग्री की प्राप्ति लाभांतर के क्षयोपशम से होती उसके द्वारा क्रिया करनेकी रूचि मोहनीय के क्षयोपशम से होती है । ( 105 प दार्थ प्रदीप

Loading...

Page Navigation
1 ... 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132