Book Title: Padarth Pradip
Author(s): Ratnajyotvijay
Publisher: Ranjanvijay Jain Pustakalay

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Page 124
________________ जीव विरती को प्राप्त नहिं कर सकता। , 5. देशविरति - आंशिक विरतिको भी प्राप्त कर सकता है, मगर दीक्षा की भावना होने पर भी चारित्र उसके हाथ में नहिं आता है। 6. प्रमत्त - दीक्षा तो मिल गइ लेकिन आत्मा पूर्ण रुप से चारित्र से मिली नहिं, अतः बीच बीच में प्रमाद कर बैठता है । 7. अप्रमत्त - जिनेश्वरने जिस प्रकार से क्रिया करने का कहा उसी प्रकार से क्रिया करने वाला / प्रमत्त अप्रमत्त के बीच पूर्व कोटि वर्ष तक झोला खाता रहता है । उसमें भी अप्रमत का काल अल्प है । 8. अपूर्वकरण - पूर्व में जैसा न किया हो वैसा करने वाला आत्मा यहां होती है, यहां से जीव श्रेणी का आरंभ करता है और अल्प स्थिति व रस वाले कर्म बांधता है, लेकिन भवोपनाही-विवक्षित भव में ले जाने वाले कर्म का बंध नहि करता. 9. निवृत्ति करण - परिणाम विशेष से ज्यादा कर्म की निर्जरा करता है । अंतकरण की क्रिया का प्रारंभ करता है, समयनुसार इस गुणस्थानक के जीव के परिणाम समान होते हे ।। 10. सूक्ष्मसंपराय - निर्जरा करते करते जो सूक्ष्म लोभ बचा उसका उदय सत्ता वाला आत्मा यहां होता है। . 11. उपशान्त छद्मस्थ वीतराग - मोह की सभी प्रकृति जहां उपशान्त हो चूकी हो । जिससे आत्मा में थोडा सा भी राग द्वेष नहि रहता लेकिन उनकी आत्मा अभी तक छद्मस्थ है, यहां से आत्मा अवश्य गिरति है, मृत्यु पाने वाला अनुत्तरमें जाता है, और गुणस्थानक का काल पूर्ण होने से गिरता हुआ 6,4,1 गुणठाणे मे जाता है । 12. क्षीण मोह छद्मस्थ वीतराग - यहां पर मोहनीय की सत्ता भी नहिं होती, यहां से आत्मा नीचे नहिं गिरती, मगर अंतर्मुहुर्त में ही केवलज्ञान प्राप्त करके हि रहती है। 13. सयोगी- केवलज्ञान हो जाने से स्वयं कृतार्थ तो हो जाते है, अपनी आत्मा के लिये उन्हे कुछ भी करने की आवश्यकता नहि है, मगर देह 107 पदार्थ प्रदीप

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