Book Title: Padarth Pradip
Author(s): Ratnajyotvijay
Publisher: Ranjanvijay Jain Pustakalay

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Page 68
________________ 22. गति - सम्म॒ति. पं. चारो गति में उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग के आयुष्य सहित उत्पन्न होते है । वहां नरक गति में प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के चोथे प्रतर तक जाते है, देवगति में - भवनपति एवं व्यन्तर में उत्पन्न होते है, वो भी पल्योपम के असं. भाग वाले आयुष्य में तथा मनुष्यगति में उत्कृष्ट से अकर्मभूमि का युगलिक बनता है और कर्म भूमि में संख्यात वर्ष के आयु वाला बनता है । यदि तिर्यञ्चगति में जाय तो अकर्म भूमि का तिर्यञ्च बनता है ओर ओकेन्द्रियादि आठ पदमें, असंज्ञि तिर्यञ्च में एवं सम्मू. मनुष्य में भी उत्पन्न होते है, इसलिये गतिज्योतिष, वैमानिक ये दो दंडक छोडकर शेष 22. दंडक में है। तथा सम्म. मनुष्य तो देवगति · नरकगति में उत्पन्न नहि होते है । तिर्यञ्च तथा मनुष्य में उत्पन्न होते है, तो युगलिक मनुष्य युगलिकत्ति. बिना सभी भेद में उत्पन्न होते है इसलिये गति अके. आदि 10. दंडक में है। 23. आगति - पांचो प्रकार के सम्मू. ति. पञ्चेन्द्रिय में अके. आदि 10 पद उत्पन्न होते है और संमू. मनुष्य में अग्नि एवं वायु ये दो पद रहित आठ पद है। 24. वेद - सभी को नपुंसक वेद होता है, लेकिन लिंग से विचारे तो सम्मू. ति. पंचे.को तीनो लिंग होते है और सम्मू. मनु. नपुंसक लिंग वाले ही होते है। 25. अल्पबहुत्व - सम्मू. मनु. गर्भज मनुष्य से असंख्य गुण सम्मू. ति. पंचे. का अल्पबहत्व गर्भज ति. पंचे. समान जानना । | अल्पबहुत्व ० पर्याप्त मनुष्य से ( पर्या ) बादर अग्निकाय, वैमानिक देव, भवनपति, नारक, व्यन्तर देव, ज्योतिष् देव, चउरिन्द्रिय ये सभी पूर्व की संख्या से असंख्य गुण है । उससे ० पं. ति., बेइन्द्रिय , तेइन्द्रिय, पृथ्वीकाय, अप्काय ये सभी जीव पूर्व पदार्थ प्रदीप

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