Book Title: Padarth Pradip
Author(s): Ratnajyotvijay
Publisher: Ranjanvijay Jain Pustakalay

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Page 85
________________ ॥ पूजा त्रिक ॥ (1) अंग पूजा - परमात्मा के अंग को स्पर्श करके जो केशर फूल आदि से पूजा होती है, उसे अंग पूजा कहते है। (2) अग्र पूजा - परमात्मा से थोडा दूर सामने रहकर धूप, दीप आदि से पूजा करते है, उसे अग्र पूजा कहते है । (3) भाव पूजा - परमात्मा के गुणगान गाना, योग्य प्रार्थना करनी चैत्यवंदन आदि विधि करना उसे भाव पूजा कहते है । ॥अवस्था त्रिक । (1) पिंडस्थ अवस्था - परमात्मा की जन्मावस्था, राज्यावस्था और श्रमण अवस्था का चिंतन करना । (2) पदस्थ अवस्था • परमात्मा की केवली अवस्था का विचार करना । समवसरण में देशना देते हुए, नव कमल उपर विचरते हुए... (3) रूपातीत अवस्था - परमात्मा की मोक्ष अवस्था का विचार करना । निरंजन निराकार, सर्ववेत्ता सदासुखी... ॥ दिशित्याग त्रिक ॥ परमात्म की मूर्ति जिस दिशा में है उसके उपर द्रष्टि रखके दूसरी तीन दिशा का त्याग करने से परमात्मा का बहुमान होता है । ॥प्रमार्जना त्रिक । चैत्यवंदन करते पहले भूमि को तीन बार पूजनी चाहिये । साधु को रजोहरण से व श्रावक को खेस से जीवरक्षा के लिए प्रमार्जना करके चैत्यवंदन करना चाहिये । पदार्थ प्रदीप 680

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