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12. धर्म भावना - में पुण्यशाली हूं कि मेरे को धर्म आराधना प्राप्त हुई है, यही कर्म लघुता का स्वरूप है । धर्म के प्रभाव से जगत पर कुदरत की महेर रहेती है, यह धर्म अनाथ का नाथ है। इस लोक में व परलोक में जो सुख मिलता है, वह इसी धर्म का प्रभाव है ।
चारित्र के पांच भेद
1. सामायिक चारित्र - सर्व पाप व्यापार का त्याग, इसके दो भेद है । (1) यावत्कथित - जीवनभर होता है । (2) इत्वरकथित · थोडे समय के लिए । (सामयिक पौषधादि में) 2. छेदोपस्थापनीय चारित्र - पांच महाव्रत के उच्चारण पूर्वक जो वडी दीक्षा होती है तथा तीर्थसंक्रान्ति में । 3. परिहार विशुध्धि चारित्र - विशेष आत्म शुध्धि की भावना से गच्छ से अलिप्त रहकर 18 महीने की आराधना करना । इसका स्वीकार केवलज्ञानी, गणधर, पूर्व में जिसने यह कल्प स्वीकारा हो उसके पास किया जा सकता है । छ महीने तक चार साधु छठ, अठम तप करते है । चार साधु उनकी सेवा करते है। ओक वाचनादाता होता है वे पांच भी हमेशा आंबिल करते है। फिर दूसरे चार तप करते है, पूर्व के चार सेवा करते है, फिर छ महीने तक वाचनाचार्य तप करते है, 7 साधु सेवा करते है, ओक वाचनाचार्य बनता है ।। 4. सूक्ष्म संपराय चारित्र - दशमें गुणस्थानक पर सूक्ष्म लोभ का उदय होता है, उस गुणस्थानकवर्ती साधु को यह चारित्र होता है। 5. यथाख्यात चारित्र - परमात्माने जिस प्रकार के चारित्र का आख्यान | विधान किया है, वैसा निर्मल चारित्र ; यह अग्यारा से चौद गुणठाणे तक होता है ।
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प दार्थ प्रदीप